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________________ जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प सहसा विदधीत न क्रियां, अविवेकः परमापदां पदम्। वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धा स्वयमेव संपदा।। उसने अर्थ का चिन्तन किया-सहसा कोई कार्य मत करो। अविवेक परम आपदाओं का स्थान है। लक्ष्मी विवेक का ही वरण करती है। वणिक- पुत्र ने श्लोक के हार्द को समझा और पत्नी को जगाया। पत्नी उठी। अपने सामने पति को देख, वह आश्चर्यचकित रह गई। वह पति के चरणों में लुठ गई। पति ने अपने आपको संयत कर पूछा-यह युवक कौन है? पत्नी ने कहा-'यह आपका युवा पुत्र है । यह पन्द्रह वर्ष का हो गया है। आप इसे संभाले।' उसने पुत्र को जगाया। पुत्र जगा। उसने पूछा-'मां ! ये कौन हैं?' मां बोली- 'ये हैं तुम्हारे पिताजी ! इन्हें प्रणाम करो।' उसने अपने पिता का चरण- स्पर्श किया। पिता प्रफुल्लित हो गया। श्लोक को बीस सहस्र स्वर्ण मुद्राओं में खरीदना सार्थक हो गया। यदि वह श्लोक नहीं होता तो आज भयंकर दुर्घटना हो जाती, पत्नी और पुत्र की मुत्यु हो जाती, सारा घर विनष्ट हो जाता। केवल एक श्लोक ने सर्वनाश से बचा लिया। आलंबनों का बहुत महत्त्व होता है। विद्यालयों में अनेक आलंबन सूत्र लिखे मिलते हैं। पर आलंबन भी अभ्यास के बिना इतने उपयोगी नहीं होते। आलंबन का अगला चरण है-अभ्यास। अभ्यास से क्षमता का विकास होता है, शक्ति बढ़ती है। एक व्यक्ति के मन में आया कि वह सांड को अपने हाथों में उठाए। कहां भारी भरकम सांड और कहां व्यक्ति के निर्बल हाथ ! उसमें बुद्धि थी। उसने उपाय की खोज की। उसे समाधान मिल गया। अब उसने तत्काल उत्पन्न बछड़े को उठाना प्रारंभ किया। प्रतिदिन वह निश्चित समय पर उसे उठाता। वह क्रम चलता रहा। उसकी यह दिनचर्या बन गई। ज्यों ज्यों बछड़ा बढ़ता गया, उसकी क्षमता भी बढ़ती गई। दो तीन वर्ष तक अभ्यास चलता रहा। बछड़ा सांड बना और उसने सांड को उठाने में सफलता प्राप्त कर ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003160
Book TitleJivan Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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