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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
नहीं मिटेगा। जिसका एटीट्यूड पोजिटिव हो गया, भावात्मक हो गया, वह व्यक्ति बदल जाएगा।
एक संन्यासी को किसी ने गाली दी। वह शांत रहा। किसी ने पूछा-महात्माजी ! उसने आपको गाली दी, आपको दुःख नहीं हआ? संन्यासी बोला-मुझे दुःख क्यों होता? उसने गाली तो दी, पीटा तो नहीं। कोई पीट देगा तो सोचूंगा, उसने मुझे पीटा ही पर मारा तो नहीं। कोई मुझे मार देगा तो मैं सोचूंगा, उसने मेरे प्राण ही लिए, पर धर्म तो नहीं लिया।
ऐसे व्यक्ति को कोई भी दुःखी बना नहीं सकता। यह विधायक दृष्टि का परिणाम है। इसके द्वारा संवेगों का संतुलन साधा जा सकता है। जब संवेग संतुलित होते हैं तब चरित्र का विकास होता है, जीवन का निर्माण होता है।
जिस जीवन और समाज की कल्पना की जा रही है, इक्कीसवीं शताब्दी के आदमी की कल्पना की जा रही है, वह आदमी शक्तिशाली तो होगा पर वह निराशा और निषेधात्मक भावों से घिरा रहेगा। प्रश्न यह है कि मूल आदमी को शक्तिशाली बनाना है या यंत्र- मनुष्य-रोबट को शक्तिशाली बनाना है?
जापान में ऐसे रोबट का निर्माण किया गया है जो मूल आदमी से भी ज्यादा आगे बढ़ा हुआ है। इससे होगा क्या? बड़ी बड़ी मशीनों ने हाथकरघों तथा हस्तशिल्प को मिटा डाला। अब वैज्ञानिक मूल आदमी को ही मिटाने में लगा है। यदि रोबट शक्तिशाली बनेगा तो मनुष्य कमजोर ही बनेगा। आज बौद्धिक व्यक्ति को यह चिंतन करना है कि रोबट भले ही बने पर मूल आदमी कमजोर न रहे। इस प्रश्न पर सबको चिंतन करना है। इस प्रक्रिया में संवेग-नियंत्रण और संवेद- परिष्कार की बात बहुत महत्वपूर्ण है।
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