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संवेग नियंत्रण की पद्धति
में हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता । सूर्य की रश्मियां आते ही रंग दीखने लग जाते हैं। रंग कहां से आए? रंग सर्वत्र हैं। पीनियल ग्लाण्ड प्रकाश संश्लेषी है । वह रंगों को पकड़ता हैं। वह प्रकाश में अधिक काम करता है । वह प्रकाश को ग्रहण करता है अर्थात् रंग को ग्रहण करता है। उससे हम अत्यधिक प्रभावित होते हैं। लाल रंग के कमरे में एक सप्ताह रह कर देखें, आप सिरदर्द से पीड़ित हो जाएंगे । सफेद रंग में ऐसा नहीं होता । काले रंग से जटिलताएं और बढ़ जाती हैं। हमारे में रंगों को पकड़ने की शक्ति है, क्षमता है। रंग संवेगों को उद्दीप्त करते हैं और शांत भी करते हैं। रंगों में उद्दीपन और शामक - दोनों शक्तियां हैं। संवेग परिष्कार में रंग की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
चौथा प्रयोग है - दृष्टिकोण का विधायक होना । निषेधात्मक दृष्टिकोण से संवेग उद्दीप्त होते हैं। हम विद्यार्थियों में इस प्रकृति को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करें कि उनमें रचनात्मक या विधेयात्मक दृष्टि का जागरण हो । उनकी निषेधक दृष्टि कमजोर हो और विधायक दृष्टि बलवान् बने ।
एक संन्यासी था । कोई घटना घटी, वह उदास और अशांत हो गया। उसने देखा मार्ग में एक भिखारी बैठा है। वह लंगड़ा है, एक हाथ से विकल है, फिर भी वह परम प्रसन्न है, शांत है। संन्यासी ने सोचा, मुझे सब कुछ उपलब्ध है, फिर भी मैं अशांत हूं, बेचैन हूं। वह भिखारी के पास गया और प्रसन्नता का गुर पूछा। भिखारी बोलाप्रसन्नता मेरा गुण है, मेरी आदत है । मेरे हाथ-पैर नहीं हैं, यह सच है । पर मैं कभी अभाव की ओर ध्यान नहीं देता, मैं सदा भाव को ही देखता हूं। मैं सोचता हूं, हाथ-पैर नहीं हैं तो क्या, मुझे सुन्दर मस्तिष्क तो मिला है। मुझे सोचने का कितना सुन्दर ढंग मिला है। यह सोचकर मैं सदा प्रसन्न रहता हूं । मेरे आंखें हैं। मैं सब कुछ देख सकता हूं। भिखारी की बात सुनकर संन्यासी अवाक् रह गया। उसका सिर झुक गया ।
जो अभाव की ओर देखता है, वह निषेधात्मक भावों से भर जाता है । उसे कितना ही मिल जाए उसका नेगेटिव एटीट्यूड कभी
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