________________
सा विद्या या विमुक्तये
और प्रत्याख्यान करो- हेय को छोड़ो। आज केवल सुना जाता है, अभ्यास नहीं किया जाता। अभ्यास की बात छूट गई। इसीलिए समस्याएं बढ़ रही हैं।
अर्जुन ने कृष्ण से पूछा-मन चंचल है, दुर्निग्रह है, पकड़ा नहीं जाता। क्या इसका भी निग्रह किया जा सकता है? कृष्ण बोलेअभ्यासेन च कौन्तेय ! वैराग्येन च गृह्यते-अर्जुन ! मन का निग्रह दो उपाय से हो सकता है--अभ्यास और वैराग्य। पतंजलि ने भी समाधि चर्चा करते-करते यही कहा-अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः मन का निरोध अभ्यास और वैराग्य से होता है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है-'तद् अधिगमाद् निसर्गाद् वा'-किसी को सम्यकदर्शन निसर्ग से प्राप्त हो जाता है और कुछ व्यक्ति अभ्यास के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं।
__आदमी प्रयोग करना भूल गया, इसीलिए धर्म के द्वारा कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। यही बात शिक्षा के क्षेत्र में हो रही है। शिक्षा में भी सैद्धांतिक पक्ष मजबूत है, पर प्रायोगिक बात नहीं है । सिद्धान्त और प्रयोग-दोनों अभिन्न हैं। इनको अलग नहीं किया जा सकता। जब आचार्यश्री जयपुर में थे, तब राजस्थान के शिक्षामंत्री भी चन्दनमल जी बैद आए, बातचीत हुई और उन्होंने घोषणा की कि नैतिक शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। हमने कहा-नैतिक शिक्षा अनिवार्य की है, यह शुभ है। पर, नैतिक शिक्षा देने वाली दो- चार पुस्तकें विद्यार्थी के पाठ्यक्रम में जुड़ जाने मात्र से कुछ नहीं होगा। आज का विद्यार्थी ऐसे ही पुस्तकों के भार से बोझिल है, फिर इन पुस्तकों से और अधिक बोझिल हो जाएगा। इससे बहुत बड़ा परिणाम नहीं आ सकता। केवल नैतिक सैद्धान्त को पढ़ा देने से कुछ लाभ नहीं है। विद्यार्थी को प्रयोग सिखाना चाहिए, जिससे कि वह अपना व्यक्तित्व रूपान्तरित कर सके।
प्रयोग की बात हमारे सामने बहुत स्पष्ट थी। बौद्धिक विकास के लिए जैसे कंठस्थ किया जाता है, अभ्यास किया जाता है, वैसे ही व्यक्तित्व के विकास के लिए भी कुछ अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है। विद्यार्थी को अन्ततः समाज में आना है, जीना है, उसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org