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जीवन विज्ञान : रदस्थ समाज रचना का संकल्प
हुआ। प्रश्न है व्यक्तित्व के रूपान्तरण का! केवल स्थान बदलने से कुछ नहीं होता।
एक कोयल आम के पेड पर बैठी थी। उधर से एक कौआ तेज रफ्तार से उड़कर जा रहा था। कोयल ने पूछा-'भैया ! कहां भाग रहे हो?' कौआ बोला-'बहिन ! इस देश को छोड़कर विदेश जा रहा हूं, क्योंकि यहां मेरा सम्मान नहीं है। जहां जाकर बैठता हूं, वहां से उड़ा दिया जाता हूं। सर्वत्र यह अपमान मुझे सहन करना पड़ता है' कोयल बोली-'भैया! स्थान को बदलने से क्या होगा? तुमने 'कां', 'कां' करना छोड़ा या नहीं? इसे बदले बिना कुछ नहीं होगा। तुम चाहे विदेश में चले जाओ, वहां भी तुम उड़ा दिए जाओगे।' स्थान परिवर्तन से कुछ नहीं होता, स्वभाव और वाणी को बदलने से ही सम्मान मिल सकता
प्रश्न है स्वभाव को बदलने का। हमें इस ओर प्रयत्न करना है। मनुष्य बदले, व्यक्तित्व का रूपान्तरण हो, केवल स्थानान्तरण नहीं। हमें उपाय सोचना चाहिए। कोरा सिद्धांत बहुत साथ नहीं दे सकता। उसकी उपयोगिता है। उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किंतु उपयोगिता एक सीमा तक है। जब तक सिद्धान्त का अभ्यास नहीं होता, तब तक कार्य पूरा नहीं बनता।
__ आज जो प्रश्न धर्म के सामने हैं, वे ही प्रश्न शिक्षा के सामने भी हैं। धर्म के सामने एक प्रश्न आता है कि आज इतने धर्म हैं, धर्मगुरु हैं, प्रवचन और क्रियाकांड हैं, फिर भी आदमी वैसा का वैसा है। अनैतिकता बढ़ी है, घटी नहीं। फिर धर्म की अर्थवत्ता क्या रही? उसकी व्यर्थता दृष्टिगोचर होती है। मैं इस विषय पर जो चिंतन प्रस्तुत करता हूं वह यह है कि धर्म और धार्मिक बहुत हैं, प्रवचन और क्रियाकांड भी बहत हैं, उपदेश करने वाले और सुनने वाले भी बहुत हैं, पर कोई व्यक्ति कोर्स पूरा नहीं करता। कोर्स पूरा किए बिना वह लाभदायक नहीं होता।
धर्म के कोर्स के तीन घटक हैं- श्रवण, मनन और निदिध्यासन। सुनना, मनन करना और फिर ध्यान या अभ्यास करना । 'सवणे नाणे विण्णाणे पच्चक्खाणे-यह पूरा कोर्स है। सुनो, जानो, विवेक करो
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