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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
रहा हो, पर आज वे सब मूल्यहीन हो गए हैं। फिर भी ये सारी प्रवृत्तियां आज भी चल रही हैं। जब पढ़े-लिखे लोगों में ये धारणाएं देखते हैं तब लगता है कि शिक्षा ने कोई काम नहीं किया। दवा तो ली, पर उसका कोई असर नहीं हुआ। इसका अर्थ है कि वह व्यर्थ है। सिरदर्द की दवा लेने पर भी यदि सिरदर्द न मिटे तो दवा की कोई सार्थकता नहीं है। बहुत सारी सामाजिक समस्याएं जो सिरदर्द बनी हुई हैं। एक शिक्षित व्यक्ति में उनका परिवर्तन होना चाहिए। अनेक अन्धविश्वास और रूढ़ियां समाज के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। पढ़े-लिखे लोग भी इनके शिकार हैं। हम दहेज का ही प्रश्न लें। लड़की के घर वालों ने दहेज कम दिया। अब लड़की को यातनाएं दी जाती हैं, पीड़ा पहुंचाई जाती है और ऐसी स्थिति बना दी जाती है कि वह आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाती है या उसकी हत्या कर दी जाती है। ऐसा अनपढ़ लोगों में ही नहीं होता, पढ़े-लिखे लोगों में भी होता है। प्रश्न उभरता है कि शिक्षित लोग ऐसा क्यों करते हैं? इसका एक ही उत्तर है कि उनमें बुद्धि तो है पर अपने संवेग पर नियन्त्रण रखने की क्षमता नहीं है। संवेग होता है लोभ का। जब लोभ प्रबल होता है तब बुद्धि उसके नीचे दब जाती है। संवेग और बुद्धि का शाश्वत संघर्ष है। बुद्धि निर्णय लेती है कि यह काम अच्छा नहीं है, नहीं करना चाहिए। किंतु जब संवेग प्रबल होता है, बुद्धि बेचारी कहीं दब जाती है और कार्य वही होता है जो संवेग का दबाव होता है।
उदयपुर मेडिकल कॉलेज के प्रिन्सिपल एम.आर. मेहता ने बताया कि उनके पास सेना का एक बहुत बड़ा अधिकारी चिकित्सा के लिए आया। वह शराब बहुत पीता था। शराब के कारण उसका लीवर और फेफड़े खराब हो गए थे। वह भयंकर रोग से पीड़ित था। वह शराब छोड़ना चाहता था, पर वह छूट नहीं रही थी, इसीलिए चिकित्सा की शरण में आया।
प्रश्न होता है कि इतना बड़ा अधिकारी, शिक्षित व्यक्ति, जानता है कि शराब खराब है, फिर भी शराब पीता है, क्यों? आप भी कह सकते हैं कि बुराई जानता हुआ भी आदमी शराब क्यों पीता है? यहां
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