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सा विद्या या विमुक्तये इसलिए साम्प्रदायिक वातावरण में धर्म के द्वारा संवेग- नियंत्रण की अपेक्षा रखना निराशा की बात है।
एक स्थिति यह है कि आज का विद्यार्थी जिस परिवार में जन्म लेता है, जहां पलता है, उस परिवार में जो धार्मिक संस्कार है, जिस सम्प्रदाय की मान्यता है, उसके सम्पर्क में भी वह बहुत कम रह पाता है। दिन में वह इतना व्यस्त रहता है कि उठते-बैठते ही वह विद्यालय जाने की बात सोचता है और वहां से लौटने पर गृह- कार्य (होम वर्क) में निमग्न हो जाता है। कभी कभी ऐसा होता है कि एक घर में रहते हुए भी पिता-पुत्र नहीं मिल पाते। आज सामाजिक वातावरण और स्थितियां भी ऐसी बन गई हैं। एक व्यक्ति से मैंने पूछा-क्या तुम कभी अपनी संतान को शिक्षा देते हो? वह बोला-आचार्यश्री ! मैं सुबह देरी से उठता हूं, तब तक लड़का स्कूल चला जाता है। जब वह स्कूल से लौटकर आता है तब तक मैं ऑफिस में रहता हूं। जब मैं देरी से घर लौटता हूं, तब तक वह सो जाता है और सुबह जल्दी उठकर चला जाता है। आमने-सामने होने का कभी अवसर ही नहीं आता। केवल रविवार को मिलते हैं, कुछ बात कर लेते हैं, और समाप्त।
ऐसे वातावरण में धर्म के द्वारा बच्चे को कुछ मिल सकेगा, ऐसी संभावना नहीं की जा सकती। इस स्थिति में बालक का निर्माण शिक्षा से जुड़ जाता है, अतः हमें सोचना होगा कि शिक्षा के साथ कुछ ऐसे तत्व और जुड़ने चाहिए, जिनसे बच्चे के संस्कारों का निर्माण हो, वह अपने संवेगों और संवेदनाओं का परिष्कार भी कर सके। आज दोनों कामों को एक ही मंच से करना होगा। बच्चों का निर्माण भी हो और संस्कार- परिष्कार भी हो। शिक्षा के क्षेत्र से ये दोनों काम हो सकते हैं। इस दृष्टि से शिक्षा जगत् का दायित्व दोहरा हो जाता है। यह बहुत बड़ा दायित्व है। 'फेरो' ने बहुत बड़ी बात कही है-'वर्तमान विद्यालय व्यक्ति को साक्षर बनाते हैं, शिक्षित नहीं बनाते।' साक्षर बनाना एक बात है और उसकी तुलना कम्प्यूटर या टेपरिकार्डर से की जा सकती है। हमने भ्रमवश स्मृति और बुद्धि को एक मान लिया है। स्मृति और बुद्धि एक नहीं है। कम्प्यूटर में इतनी तीव्र स्मृतियां
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