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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
मनुष्य में संवेगों पर नियंत्रण करने की क्षमता बढ़े जिससे कि संवेगों की प्रचुरता न रहे। वे एक सीमा में आ जायें।
__ मुक्ति का तीसरा संदर्भ होगा-संवेदों के अतिरेक से मुक्ति । इंद्रियों की जो संवेदनाएं है, उनका अतिरेक भी समस्याएं पैदा करता है और समाज में अनेक उलझनें उत्पन्न करता है। शिक्षा का यह महत्वपूर्ण कार्य है कि वह संवेदनाओं के अतिरेक से व्यक्ति को मुक्ति दिलाए।
मुक्ति का चौथा संदर्भ होगा-धारणा और संस्कार से मुक्ति । व्यक्ति धारणाओं और अर्जित संस्कारों के कारण दुःख पाता है। शिक्षा का कार्य है कि वह इनसे मुक्ति दिलाए।
मुक्ति का पांचवां संदर्भ होगा-निषेधात्मक भावों से मुक्ति । व्यक्ति का नेगेटिव एटिट्यूड समस्या पैदा करता है। इससे मुक्त होना भी बहुत आवश्यक है।
इन पांच संदर्भो में मुक्ति को देखने पर 'सा विद्या या विमुक्तये' का सूत्र बहुत स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में विद्या वही होती है जो मुक्ति के लिए होती है, जिससे मुक्ति सधती है। हम कसौटी करें और देखें कि क्या आज की शिक्षा से ये पांचों संदर्भ सधते हैं ? क्या वास्तव में अज्ञान आदि से मुक्ति मिलती है ? यदि अज्ञान आदि से मुक्ति मिलती है तो वह शिक्षा परिपूर्ण है और यदि नहीं मिलती है तो उसमें कुछ जोड़ना शेष रह जाता है। जीवन-विज्ञान की पूरी कल्पना इन संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में की गई है।
__ आज शिक्षा के द्वारा अज्ञान की मुक्ति अवश्य हो रही है। आज ज्ञान बढ़ रहा है,बौद्धिक विकास हो रहा है। किन्तु संवेग के अतिरेक से मुक्ति आदि की बातें शिक्षा से जुड़ी हुई नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है। लोगों की धारणा यही है कि यह बात धर्म के क्षेत्र की है, शिक्षा के क्षेत्र की नहीं है। यह धारणा अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि धर्म का मूल अर्थ ही है संवेगों पर नियंत्रण पाना। यह धर्म के मंच का काम होना चाहिए। शिक्षा-क्षेत्र का यह कार्य क्यों होना चाहिए? ऐसा सोचा जा सकता है। पर वर्तमान परिस्थिति में धर्म की भी समस्या है और वह यह है कि धर्म का स्थान मुख्यतः सम्प्रदाय ने ले लिया है।
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