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व्यवस्था को बदलना ही पर्याप्त नहीं एस्पेक्ट से जब व्यक्तित्व का निर्माण होता है तब बौद्धिक विकास के साथ- साथ चरित्र का भी निर्माण होता है।
दो पक्ष हैं-बौद्धिक विकास और संवेग नियन्त्रण। बौद्धिक विकास तो अपनी चरम सीमा पर पहुंचने को तैयार है, किन्तु संवेग- नियन्त्रण अभी बाल्य अवस्था में ही है। आज के विश्वविद्यालयों में विद्या की जो शाखाएं हैं वे अनगिन हैं, किन्तु संवेग- नियन्त्रण की विद्या को भाग्य - भरोसे छोड़ दिया गया है। यदि हम प्रतिशत में बांटे तो पचास प्रतिशत मूल्य है बौद्धिक विकास का और पचास प्रतिशत मूल्य है संवेग- नियन्त्रण का। बौद्धिक विकास ने अपना पूरा मूल्य पा लिया है। यदि भावनात्मक विकास सध जाता है तो अच्छे समाज के निर्माण में समय नहीं लगता। जीवन-विज्ञान- पद्धति की शिक्षा के द्वारा जिस समाज का निर्माण होगा, उसमें न उत्पीड़न होगा, न जातिवाद की क्रूरता होगी, न छुआछूत होगा और न शोषण की समस्याएं होंगी।
स्वच्छ समाज की परिकल्पना के लिए अणुव्रत आन्दोलन ने जो प्रारूप प्रदान किया है, वह जीवन-विज्ञान के सन्दर्भ में एक विनम्र प्रयत्न है, नया दृष्टिकोण है। जिन लोगों ने केवल समाज व्यवस्था को बदलने का प्रयत्न किया, जिनमें रूस और चीन प्रमुख हैं, उनका अनुभव है कि व्यवस्था के बदल जाने पर भी आदमी नहीं बदलता।
वहां समाज-व्यवस्था बदली पर आदमी का हृदय नहीं बदला, इसीलिए वहां अनेक प्रकार के आर्थिक घोटाले होते हैं, जघन्य अपराध होते हैं। तब तक हृदय नहीं बदलता, जब तक संवेग- परिष्कार की भावना नहीं उमड़ती हैं। संवेग- परिष्कार के बिना बुराइयों से नहीं बचा जा सकता।
शिक्षा के सार्वभौम और अन्तर्राष्ट्रीय तथ्यों के आधार पर एक परिकल्पना की गई, जिसमें दोनों पक्षों-बौद्धिक और भावनात्मक का संतुलित विकास हो। पूरे चिन्तन और मनन के पश्चात् यह परिकल्पना सामने रखी गई है और इसके प्रयोग का श्रेय पहले पहल राजस्थान को मिला है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री मजूमदार ने कहा-एटीट्यूड को बदलने की प्रक्रिया अभी हमारे पास नहीं है। इसके द्वारा समाज का
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