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जीवन विज्ञान: स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
वपन नहीं होता है तब तक बच्चे के संस्कार अंकुरित नहीं होते। जहां से बीज का वपन शुरू होता है, वहां से बीज का संस्कार अंकुरित होने लगता है। आज उस स्थान की पूर्ण उपेक्षा है तो फिर समाज के परिवर्तन की बात ही प्राप्त नहीं होती । समाज परिवर्तन के लिए दो बातें जरूरी हैं- संवेग पर नियन्त्रण और विचारों पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास ।
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विद्यार्थी समाज में आता है, सामाजिक जीवन जीता है। वह आज समाज को अच्छा नहीं बना रहा है। इसका कारण है कि उसमें नियन्त्रण की शक्ति नहीं है। यह शाश्वत सत्य है कि जब तक व्यक्ति में संवेगों, विचारों और वासनाओं पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं होती, तब तक अच्छा समाज नहीं बन सकता। वह अपराधियों का समाज होगा, स्वच्छ समाज कभी नहीं होगा ।
महामात्य कौटिल्य ने लिखा है- शासक को इन्द्रियजयी होना चाहिए। उसने यह बात साधना या वीतराग बनने के लिए नहीं कही, किन्तु इसलिए कही कि यदि शासक इन्द्रियजयी नहीं होता है तो जनता उत्पीड़ित होती है । यदि वह इन्द्रियजयी है तो जनता सुख-सम्पन्न होती है। शासक वर्ग की इन्द्रिय- उच्छृंखलता के कारण ही अनेक समस्याएं उभरी हैं। जिस समाज में इन्द्रिय- संयम की बात नहीं होती, उस समाज में चोरियां, डकैतियां, बलात्कार और अपराध बढ़ते जाते हैं। शिक्षा का काम है बौद्धिक विकास के साथ साथ विद्यार्थी में विचारों पर, संवेग और संवेदनाओं पर नियन्त्रण की क्षमता को बढ़ाना, उस शक्ति को जागृत करना । आज की शिक्षा से पहला काम बौद्धिक विकास तो पर्याप्त मात्रा में हो रहा है। दूसरा काम नहीं हो रहा है। इसलिए आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया, जिससे कि व्यक्ति अच्छा नागरिक बन सके, अच्छे समाज का निर्माण हो। उसके लिए आचार संहिता तैयार हो गई । पर उस आचार-संहिता का क्रियान्वयन कैसे हो, इस चिन्तन के उपक्रम से प्रेक्षाध्यान का विकास हुआ। इसका क्रियान्वयन शिक्षा - जगत् के लिए वरदान है। शिक्षा जगत् में यह बहुत ध्यान देने योग्य बात है कि शिक्षा का आधार बायोलोजिकल एस्पेक्ट होना चाहिए। बायोलोजिकल
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