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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
प्रश्न होता है कि धर्म क्या है? सम्प्रदायों के आधार पर धर्म की अनेक परिभाषाएं की गई हैं। सम्प्रदाय-निरपेक्ष भाषा में धर्म की परिभाषा यह हो सकती है-अपने संवेगों पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास ही धर्म है।
संत डायोगनिज के पास एक व्यक्ति ने आकर पूछा–मैं धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूं। डायोगनिज ने कहा-अभी तो मैं व्यस्त हूं। तुम अपना ठिकाना बता दो, मैं धर्म की परिभाषा लिखकर भेज दूंगा। उसने अपना पता लिखा दिया। संत ने पूछा-क्या तुम वहां सदा रहते हो? उसने कहा-यदा-कदा बाहर चला जाता हूं।
संत ने कहा-तुम अपना स्थायी पता बताओ। उसने कहा-अमुक दिनों में वहां रहता हूं, अमुक दिनों में वहां रहता हूं। संत ने कहास्थायी पता बताओ। वह व्यक्ति 'स्थायी पता' 'स्थायी पता', सुनकर तमतमा उठा। वह क्रोध में अपनी ही छाती पर आनन्द केन्द्र पर, मुक्का मारते हुए बोला-यहां रहता हूं। यह है मेरा स्थायी पता। संत ने कहा-यहां रहना ही धर्म है। यही है धर्म की परिभाषा। यहां से बाहर जाना अधर्म है।
जीवन विज्ञान के आधार पर धर्म की परिभाषा है-संवेगों और आवेगों पर नियन्त्रण करने की शक्ति का विकास करना।
यह धर्म शिक्षा के साथ जुड़ता है तो किसी भी धर्म-सम्प्रदाय को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इसमें न साम्प्रदायिकता का प्रश्न है न जातीयता और राष्ट्रीयता का प्रश्न है। यह निर्विशेषण धर्म है। इसका समावेश शिक्षा में होना अनिवार्य है। यदि यह शिक्षा के साथ जुड़ता है तो शिक्षा का आज जो लंगड़ापन है वह मिट जाता है। अन्यथा ज्ञान बढ़ेगा, पर चरित्र नहीं बढ़ सकेगा।
केवल पढ़ा-लिखा होने मात्र से पारिवारिक सामंजस्य नहीं हो जाता। पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी बहुत झगड़ालू होता है। जब तक परिवार के सदस्य में ज्ञान के साथ आचार की बात विकसित नहीं होती तब तक वह परिवार के लिए खतरा बना रहता है। उसका पारिवारिक जीवन विवादग्रस्त बन जाता है। वह सह-अस्तित्व की बात भूल जाता है। जो व्यक्ति परिवार में सामंजस्यपूर्ण स्थिति
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