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________________ शिक्षा और जीवन मूल्य (१) ३१ यह स्तरीय बोध स्पष्ट नहीं होता, तब तक उलझनें पैदा होती रहती हैं। प्राचीन साहित्य में कहा गया है-'गृहस्थाश्रमसमो धर्मो न भूतो न भविष्यति'-गृहस्थाश्रम के समान न तो कोई धर्म हुआ है और न होगा। इसी प्रकार संन्यास का भी अपना स्थान है। उसके समान कोई आश्रम नहीं है। स्तरों की तुलना नहीं हो सकती। हम उनका मूल्यांकन भिन्न भिन्न दृष्टि से ही कर सकते हैं। धर्म और सम्प्रदाय दोनों का अपना मूल्य है। धर्म है अध्यात्मिक चेतना का जागरण और संप्रदाय है चेतना के जागरण में सहयोग देने वाला संस्थान। धर्म का लक्ष्य है बंधन- मुक्त होना। आज आक्रोश धर्म के प्रति नहीं, धर्म के नाम पर चलने वाली सांप्रदायिकता के प्रति है। संस्थागत धर्म से विरोध हो सकता है, पर चारित्रिक धर्म से विरोध नहीं हो सकता। कोई पूछता है कि घड़ा बना, इसमें ज्यादा योग मिट्टी का है या कुम्हार का? ज्यादा कम नहीं बताया जा सकता। दोनों का अलग अलग मूल्य है। मिट्टी मूल कारण है और कुम्हार निमित्त कारण है। घड़ा दोनों कारणों से बनता है। दोनों का अपना अपना स्तरीय मूल्य है। शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यों की चर्चा बहुत आवश्यक है। इसके दो पहलू हैं-मूल्य की सीमा का बोध और मूल्य- प्राप्ति के साधनों का बोध! प्रश्न है कि विद्यार्थी को ये मूल्य कैसे प्राप्त कराए जाएं। जीवन विज्ञान की प्रणाली में मूल्य- प्राप्ति के साधनों के प्रयोग निर्धारित किए गए हैं। उनका अभ्यास करने से मूल्यात्मक चेतना विकसित होती है। मूल्य- बोध में दार्शनिक दृष्टि बहुत आवश्यक है और मूल्य- प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक प्रयोग जरूरी हैं। मूल्यांकन में बहुत अन्तर होता है, इसलिए दार्शनिक दृष्टि बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। मूल्यांकन समान नहीं होता। जब तक सर्वांगीण जीवन-दर्शन के द्वारा मूल्यपरक दृष्टि स्पष्ट नहीं होती तब तक मानसिक उलझनें मिटती नहीं। शिक्षा में मूल्य- बोध जितना स्पष्ट होगा उतनी ही स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003160
Book TitleJivan Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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