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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
जा सकता। साम्यवादी प्रणाली में मूल्यों की उपेक्षा की गई। उसका परिणाम यह आया कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाया अनेक समस्याएं उभरीं। जिन लोगों ने प्रजातांत्रिक प्रणाली में भी आर्थिक मूल्यों को अतिरिक्त मूल्य दिया, वहां असंतोष और पागलपन बढ़ा। जब अर्थ या भोग का मूल्य अतिरिक्त होता है तब पागलपन बढ़ता है और एक प्रकार की ऊब पैदा होती है जिससे आदमी का संतुलन बिगड़ सकता है। जहां आध्यात्मिक मूल्यों को अतिरिक्त स्थान दिया जाता है वहां गरीबी बढ़ सकती है, परतंत्रता भी आ सकती है। अध्यात्म में या भक्ति में रत रहने वाला सोच सकता है, यही सार है। कमाने की या खेती की जरूरत ही क्या है? वह दिन- रात भक्ति में लीन रहता है। कैसे चलेगा जीवन? वह परिवार का पोषण कैसे करेगा? जहां अतिक्रमण होता है वहां समस्याएं उत्पन्न होती हैं इसलिए यह आवश्यक है कि आदमी का दृष्टिकोण यथार्थवादी बने जिसका, जिस स्तर पर, जितना मूल्य हो उसको उतना मूल्य दिया जाए। शरीर के स्तर पर जिसका मूल्य है उसकी तुलना शरीर के स्तर पर ही हो सकती है और अध्यात्म के स्तर पर जिसका मूल्य है, उसकी तुलना अध्यात्म के स्तर पर ही हो सकती है। दोनों में असमानता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। शरीर के स्तर का मूल्य है भोजन करना और अध्यात्म के स्तर का मूल्य है भक्ति करना। प्रश्न होता है कि भोजन का मूल्य अधिक है या भक्ति का ? इस विषय में एकांगी दृष्टि से कुछ नहीं कहा जा सकता। इसमें अधिक या कम की तुलना नहीं की जा सकती। शारीरिक स्तर पर भोजन का और आध्यात्मिक स्तर पर भक्ति का मूल्य अधिक है।
बहुत बार प्रश्न आता है कि गृहस्थी का स्थान ऊंचा है या संन्यास का? इसकी तुलना करना कठिन है। दो स्तरों के बीच समानता की बात नहीं सोची जा सकती। गृहस्थ के स्तर में और संन्यासी के स्तर में बहुत बड़ा अन्तर है। सामाजिक स्तर पर गृहस्थ का और अध्यात्म के स्तर पर संन्यासी का मूल्य ज्यादा है। किन्तु दोनों की तुलना नहीं की जा सकती। दोनों स्तर अलग हैं। जब तक
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