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शिक्षा और भावात्मक परिवर्तन
लोभ को, भाव को । पर आदमी उसकी बात को स्वीकार ही नहीं कर रहा है। दोनों का संघर्ष है और इसी के आधार पर कथनी और करनी की दूरी बराबर बनी रहती है।
कथनी और करनी में दूरी क्यों है, इस पर हम चिंतन करें। यदि बौद्धिक विकास के साथ इस समस्या का समाधान होता तो आज के बौद्धिक वर्ग - वैज्ञानिक, इंजीनियर, वकील आदि की कथनी और करनी समान होती है किंतु देखा जाता है कि उनमें भी कथनी करनी की अपार दूरी है ! उनका बुद्धि का स्तर बहुत विकसित हो गया, पर भावना के स्तर पर उन्हें बालक ही कहा जाएगा। जो बहुत बड़ा शब्दशास्त्री बन गया, पर यदि उसने लिंगानुशासन नहीं पढ़ा है तो बच्चा ही है । इसी प्रकार आदमी ने कितना ही बौद्धिक विकास कर लिया, किंतु वह संवेद और संवेग के लिंगानुशासन से अजान है तो वह बालक ही है। संवेद और संवेग के नियंत्रण को जाने बिना उसका ज्ञान व्यर्थ है। जब तक यह नियंत्रण की क्षमता उसमें विकसित नहीं होती तब तक कथनी और करनी की दूरी, ज्ञान और आचरण की दूरी को भगवान् भी नहीं मिटा सकते। शिक्षा का काम है इनमें समन्वय और सामंजस्य स्थापित करना । ज्ञान और आचरण के समन्वय का अर्थ है बौद्धिक एवं भावात्मक विकास में समन्वय । यह होने पर कथनी और करनी की समस्या का समाधान हो सकता है।
साम्यवादी प्रणाली में व्यक्तिगत नियंत्रण पर बहुत ध्यान दिया गया पर आदमी बदला नहीं। जब तक हमारा ध्यान संवेगों के नियंत्रण और अनुशासन पर केन्द्रित नहीं होगा, तब तक समाज में परिवर्तन लाने की बात नहीं आएगी । साम्यवादी शिक्षाप्रणाली में यह माना गया कि ज्ञान केवल जानने के लिए विश्व का पुनर्निमाण करने के लिए और समाज को बदलने के लिए है। किंतु शिक्षा के द्वारा यह नहीं हो रहा है। इसका तात्पर्य है कि शिक्षा में कहीं न कहीं त्रुटि है और वह त्रुटि यह है कि शिक्षा में भावात्मक विकास की बात छूट गई है ।
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आज हमें इस बात पर ध्यान केन्द्रित करना है कि शारीरिक विकास के साथ बौद्धिक विकास और भावनात्मक विकास का संतुलन
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