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व्यक्ति का समाजीकरण कभी भी धराशाही हो सकता है।
समाज में स्वामित्व भी अपेक्षित तत्त्व है। भूमि का स्वामित्व होता है, संपदा का स्वामित्व होता है, अन्यान्य पदार्थों का भी स्वामित्व होता है। स्वामित्व होना आवश्यक तत्त्व है। किंतु जब उस स्वामित्व की सीमा नहीं होती है तब वह समाज के लिए खतरनाक बन जाता है। स्वामित्व की सीमा होनी चाहिए, शिक्षा के द्वारा स्वामित्व का समाजीकरण होना चाहिए। आज की जितनी आर्थिक समस्याएं हैं, वे स्वामित्व की समस्याएं हैं। भारत का यह प्राचीन सूत्र है-सम्पत्ति सामाजिक होती है, वैयक्तिक नहीं। मार्क्स ने कोई नई बात नहीं कही। उनका भी सूत्र है-सम्पदा सामाजिक होती है। भारत के आचार्यों ने जो एक बात कही, वह मार्क्स भी नहीं कह पाया। भागवत का एक श्लोक है -
यावद् भ्रियेत जठरं, तावत् सत्त्वं हि देहिनाम्।
योऽधिकं चाभिमन्येत, स स्तेनो वधमर्हति।। जितने से पेट भरा जा सके, उस पर स्वामित्व करना ही विहित है। जो इससे अधिक संग्रह करता है, वह चोर है, वध्य है।
आज का सारा झगड़ा स्वामित्व की परिधि में चल रहा है। आज के आदमी का संस्कार तो यह है कि मैं खाऊं, बेटा पोता भी खाए, इतना ही नहीं, सात पीढ़ियां भी उसका उपभोग करे। संस्कार तो सात पीढ़ियों का है और सरकार चाहती है कि स्वामित्व की उचित सीमा हो। इस स्थिति में आदमी संस्कार की बात मानेगा या सरकार की बात मानेगा? जब तक संस्कार नहीं बदलता, तब तक दो नंबर के खातों को और काले धन को नहीं रोका जा सकता।
एक राजनेता ने कहा-काला धन मिटना चाहिए। मैं कहता हूं, धन नहीं, मन होता है काला। मनुष्य का काला मन मिटना चाहिए। काले मन को मिटाए बिना काले धन को मिटाने की बात नहीं सोची जा सकती। जब तक मन काला है तब तक धन काला आता रहेगा, जाता रहेगा। उसे कोई कानून नहीं मिटा सकता। कानून के सामने आते ही प्रत्यक्षतः चलने वाली बुराई भूमिगत होकर चलने लगती है। बुराई सामने न हो, यह है कानून का परामर्श । कानून को आपत्ति तब
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