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व्यक्ति का समाजीकरण
संवेगों की विस्तृत व्याख्या की है और व्यक्ति संवेगों से कितना प्रभावित होता है, यह भी विस्तार से बताया है । किन्तु संवेगों का परिष्कार कैसे किया जाए- इसका मनोविज्ञान की अपेक्षा अध्यात्म, धर्म और योग में अधिक वर्णन है। वहां अनेक तत्व बतलाए गए हैं । किन्तु कठिनाई यह है कि आज की शिक्षा में अध्यात्म, धर्म और योग को अनावश्यक माना गया है। आवश्यक नहीं मानने का कारण यह है कि धर्म संप्रदाय से आवृत है। धर्म की ज्योति संप्रदाय की राख से इतनी ढक गई है कि उसके अस्तित्व का भी बोध होना दुर्लभ हो गया है। इसलिए उसको शिक्षा में कैसे लिया जाए? 'कोठारी आयोग' के सचिव ने बताया- हमारी मीटिंगें होती हैं, पर जब धर्म का प्रश्न आता है तब बात : टक जाती है कि अमुक व्यक्ति का नाम नहीं आना चाहिए, अमुक तार का नाम नहीं आना चाहिए। साम्प्रदायिकता के कारण अध्यात्म के मूल तत्त्व नीचे दब जाते हैं। संप्रदाय को इतना महत्त्व मिल गया कि अध्यात्म की शुद्ध धारा विलुप्त हो गई। उसे पकड़ पाना भी कठिन हो गया । यह बहुत बड़ी समस्या है। इसका समाधान करना हो तो संवेगों को संतुलित, व्यवस्थित और परिष्कृत करना होगा । इसके लिए हमें निश्चित रूप से अध्यात्म, धर्म और योग की शरण में जाना होगा। भारत के ऋषि-मुनियों, आचार्यों और साधकों ने बहुत लंबे अतीत में ऐसे तत्त्वों को खोजा था, जिनके द्वारा संवेगों को परिष्कृत किया जा सके। केवल ग्रन्थों के आधार पर नहीं, किंतु आज हम अनुभव के आधार पर भी कह सकते हैं कि ऐसा परिवर्तन निश्चित रूप से आ सकता है। संवेग बदलते हैं, उनका परिष्कार होता है, संवेदनशीलता विकसित होती हैं
अध्यात्म के क्षेत्र में ऐसी घटनाओं का प्रचुर उल्लेख है। सभी धर्म-सम्प्रदायों में ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिनकी संवेदनशीलता अपूर्व थी।
एक व्यक्ति ने रोटियां बनाकर रखीं। इतने में ही एक कुत्ता आया. और रोटियां ले भागा। पीछे पीछे वह व्यक्ति, एक कटोरी में घी लेकर, कुत्ते के पीछे भागा। वह बोलता जा रहा था - ' अरे भाई कुत्ते ! रोटियां लूखी हैं। मैं इन्हें घी से चुपड़ देता हूं, फिर खा लेना । लूखी
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