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________________ व्यक्ति का समाजीकरण स्वार्थ- केन्द्रित रहता है तो उसके एक स्वार्थ के कारण पूरे समाज को नुकसान होता है और वह स्वयं भी उस नुकसान से बच नहीं सकता। आचार्य भिक्षु ने इस तथ्य को समझाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दृष्टांत दिया है। चार ब्राह्मणों को एक गाय दान में मिली। चारों का गाय में समुचित भाग था। चारों ने सोचा, इसका बंटवारा कैसे किया जाए ? सोचा, उपाय निकाला। यह तय हुआ कि एक एक दिन प्रत्येक व्यक्ति गाय को दुहे और दूध का उपभोग करे। पहले दिन जिसकी बारी थी उसने दूध दुहा और सोचा, मैं इस गाय को क्यों दाना-पानी दूं। मेरे पास तो यह कल रहेगी नहीं। कल जिसकी बारी है, वह इसे दाना- पानी देगा। ___अगले दिन वाले ने भी दूध दुह लिया और दाना-पानी देने के समय उसी प्रकार सोचा जैसे पहले व्यक्ति ने सोचा था। चारों ने गाय का दूध दुहा पर उसे चारा-पानी नहीं दिया। गाय दुबली हो गई, दूध सूख गया। गाय के मरने की स्थिति आ गई। जिस समाज में ऐसा चिंतन होता है कि दूध दुहा जाए, पर खिलाया- पिलाया न जाए, वह समाज विघटित हो जाता है। यह स्वार्थ- परायणता है। इस स्वार्थ का परमार्थीकरण परस्परता के सिद्धान्त पर किया जा सकता है। एक दूसरे को काट कर कोई भी आदमी जी नहीं सकता। एक व्यक्ति दूसरे कितने व्यक्तियों से जुड़ा होता है-कपड़ा बुनने वाला भी चाहिए, कपड़े सीने वाला और धोने वाला भी चाहिए, मोटरकार चलाने के लिए तेल भी चाहिए, बीमार के लिए दवाई और डाक्टर भी चाहिए, दवाई बनाने वाला और बेचने वाला भी चाहिए। परस्परता की बहुत लंबी शृंखला है। आदमी एक दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि उनका विस्तार सीमा पार गया है। इस स्थिति में जो व्यक्ति केवल अपना ही स्वार्थ देखता है, दूसरों की ओर से आंखें मूंद लेता है, ऐसा अज्ञान के कारण होता है। इसमें शिक्षा भी कारण बनती है। क्योंकि उसने परस्परता की चेतना को जगाया नहीं। आज स्वार्थ प्रतिदिन बढ़ रहा है, उसका विकास हो रहा है। समाजीकरण का दूसरा घटक है-संवेदनशीलता का विकास । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003160
Book TitleJivan Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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