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व्यक्ति का समाजीकरण हम स्वावलम्बन की बात करते हैं, किन्तु वास्तव में हमारा परस्परावलंबन है, जिसे हम कभी विस्मृत नहीं कर सकते। आदमी प्रातःकाल घूमने निकलता है। वृक्ष कुछ वायु छोड़ते हैं, वह आदमी के लिए प्राणवायु बन जाती है। आदमी प्राणवायु को भीतर ग्रहण करता है और निःश्वास के रूप में कार्बनडाइऑक्साइड का विसर्जन करता है। वृक्ष उसे ग्रहण करता है। वह वृक्ष को प्राण देने वाला बन जाता है। यह परस्परता है। केवल आदमी आदमी में ही परस्परता नहीं है किन्तु प्रत्येक प्राणी के साथ हमारी परस्परता है। एक प्राणी दूसरे से जुड़ा हुआ है। जो मनुष्य के लिए अनुपयोगी बन गया, वह वनस्पति जगत् के लिए उपयोगी बन गया और जो वनस्पति जगत् के अनुपयोगी बन गया, वह मनुष्य के लिए उपयोगी बन गया। सारी सृष्टि में एक संतुलन बना हुआ है। सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन्हें पृथक या विश्लेषित नहीं किया जा सकता। परस्परता से सब कुछ जुड़ा हुआ है। एक के लिए उपयोगी, दूसरे के लिए अनुपयोगी। एक के लिए अनुपयोगी, दूसरे के लिए उपयोगी।
शिक्षा का कार्य है कि उससे परस्परता की चेतना का विकास हो। यही है समाजीकरण का विकास । यही है उसका महत्त्वपूर्ण सूत्र । हम यह अनुभव करते हैं कि स्वार्थ बहुत बढ़ा है, परमार्थ कम हुआ है। इसका कारण है कि आज की प्रचलित शिक्षा में परमार्थ की चेतना को उजागर करने वाले तत्त्व कम हैं और स्वार्थ- चेतना के तत्त्व अधिक हैं। आदमी की चेतना परमार्थ तक जाती ही नहीं, वह स्वार्थ तक ही सीमित रह जाती है। व्यक्ति वैयक्तिक स्वार्थ साधना चाहता है। यही समूचे संसार में हो रहा है। जिस समाज के व्यक्ति ने अपने वैयक्तिक स्वार्थ पर ध्यान अधिक दिया, वह समाज सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक-सभी दृष्टियों से पिछड़ गया। यदि एक अध्यापक छात्र पर पूरा ध्यान देता है तो छात्र का विकास होता है। यदि अध्यापक अपने स्वार्थ पर ध्यान देता है, स्व- केन्द्रित और
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