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समाज का आधार : अहिंसा का विकास है। आज अहिंसा स्वयं दयनीय स्थिति में है। फिर भी उसके लिए, कोई प्रयत्न नहीं हो रहा है।
अहिंसा के विकास का सातवां विघ्न है-अप्रयोगात्मक भूमिका। आज अहिंसा का कोई प्रयोग नहीं हो रहा है। यदि प्रयोग हो तो किसी भी चीज का विकास हो सकता है। जब तक नया अनुसंधान नहीं होता, नई खोज नहीं होती, उसका कोई प्रयोग और प्रशिक्षण नहीं होता तब तक किसी चीज का विकास नहीं हो सकता।
अहिंसा के लिए न कोई अनुसंधान हो रहा है, न कोई नया प्रयोग हो रहा है और न कोई प्रशिक्षण दिया जा रहा है। हमने कहीं नहीं देखा कि १०० आदमी अहिंसा की ट्रेनिंग ले रहे हों अथवा पूरे हिन्दुस्तान में अहिंसा के प्रशिक्षण का कोई केन्द्र हो।।
प्रयोग और प्रशिक्षण के बिना, अनुसंधान या रिसर्च के बिना किसी भी चीज का विकास हो नहीं सकता। हमारे पास ज्यादा से ज्यादा है तो अहिंसा का सिद्धांत है या कुछ महापुरुषों के जीवन की घटनाएं और जीवनियां हैं। उनसे कभी कभी थोड़ी प्रेरणा मिलती है. मस्तिष्क झंकृत होता है और मन में यह भाव जागता है कि अहिंसा अच्छी है या उन उन महापुरुषों ने इस प्रकार अहिंसा का जीवन जीया था। - पंजाब के राजा रणजीतसिंह जा रहे थे। अचानक एक पत्थर आया और महाराज के सिर पर लगा। महाराज के सिर पर कोई पत्थर लग जाए, कितनी भयानक बात थी उस समय? चारों ओर छानबीन शुरू हुई कि किसने पत्थर फेंका? सारे दौड़े। पता लगाते लगाते एक पेड़ के नीचे पहुंचे, जहां बुढ़िया खड़ी थी। वे उसे महाराज के पास लाकर बोले-महाराज ! यही है जिसने आपके सिर पर पत्थर की चोट की है। बुढ़िया बेचारी कांपने लगी। महाराज ने उससे पूछा-तुमने पत्थर फेंका? उसने कांपते स्वर में कहा-हां, महाराज ! मैंने फेंका।' 'क्यों फेंका ?' वह बोली-'बड़ी गरीब हूं। दो दिन हो गए, खाने को कुछ मिला नहीं। छोटा लड़का है। मैंने सोचा-कुछ तो लाकर लड़के को दूं। पेड़ के नीचे खड़ी थी। फल तोड़ने को पत्थर फेंका, अचानक योग मिल गया कि वह पत्थर उधर
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