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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प अध्यात्म का या भारतीय चिंतन का सूत्र है कि जैसी आस्था होती है, जैसा संकल्प होता है, वैसा आदमी होता है। अगर यह नहीं होता तो प्रतिकूल परिस्थिति में ईमानदार आदमी पैदा ही नहीं होता। फिर उसे बदलने का प्रयत्न ही नहीं होता। हमें एक संकल्प लेने की जरूरत है, एक आस्था पैदा करने की जरूरत है। उसके लिए पहले हमारी धारणाओं को स्पष्ट करने की आवश्यकता है।
अहिंसा के विकास में दूसरी बाधा है-हिंसा का संस्कार | हिंसा के अपने संस्कार हैं। हम परिवर्तन की बात सोचते हैं किन्तु इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने अपने कर्मजनित संस्कार होते हैं। यह कोई जादू का खेल नहीं कि थोड़ा-सा कुछ किया और सब बदल गया। हिंसा के अपने अपने संस्कार हैं। एक व्यक्ति में हिंसा के तीव्र संस्कार होते हैं। दूसरे व्यक्ति में हिंसा के संस्कार कम होते हैं। तारतम्य है और इतना तारतम्य कि सोच की नहीं सकते। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी योग्यता की तरतमता है। हम ऐसा तो नहीं कर सकते कि एक राजकीय आदेश या राष्ट्रपति का अध्यादेश निकाला और वह लागू हो गया। हमें इस सचाई को मानकर चलना पड़ेगा कि यह एक वैयक्तिक विशेषता है। अपने अपने संस्कार हैं, इसलिए हम यह आशा नहीं कर सकते कि सब में यह आस्था उत्पन्न हो जायेगी। फिर भी हम निराश न हों। हमारी अपनी आस्था यह होनी चाहिए कि प्रयोग के द्वारा, प्रयत्न और अभ्यास के द्वारा संसार को भी परिष्कृत किया जा सकता है। हम सर्वथा परतन्त्र नहीं हैं उस संस्कार से। संस्कार है, यह हम स्वीकार करेंगे और संस्कार हमें सचालित कर रहा है, इसे भी हम अस्वीकार नहीं करेंगे किंतु हम केवल परतन्त्र नहीं हैं, संस्कार की कठपुतली नहीं हैं। हम प्रयत्न और अभ्यास के द्वारा संस्कार को बदल सकते हैं, उसमें परिष्कार ला सकते हैं। यह क्षमता भी हमारे भीतर है।
विघ्न या बाधा को मिटाने के लिए हमारा अभ्यास हमें बहुत 'सहायता देता है। इस दृष्टि से भी अभ्यास का महत्त्व बढ़ जाता है कि यदि हमारा प्रयत्न है, अभ्यास है तो हम संस्कार पर विजय पा सकते हैं, उसे परिष्कृत कर सकते हैं।
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