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समाज का आधार अहिंसा की आस्था
वह चोरी कैसे करेगा? किंतु कारावास में ऐसे बहुत से लोग हैं कि जो अनेक बार अपराध कर चुके हैं, कारावास की सजा भोग चुके हैं। उनमें परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता ।
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प्रश्न होता है कि क्या परिस्थिति शक्तिशाली है या चेतना शक्तिशाली है? यदि परिस्थिति शक्तिशाली है तो फिर उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है। जो परिस्थिति है, जैसी है वैसी ही रहेगी । उसे हम बदल ही नहीं सकते। किंतु चेतना बहुत शक्तिशाली है । परिस्थिति को बदलती कौन है और परिस्थिति का निर्माण कौन करती है ? मनुष्य की चेतना ने ही परिस्थिति का निर्माण किया है और मनुष्य की चेतना ने ही परिस्थति को बदला है । यह स्पष्ट हो गया कि हमारी चेतना अधिक शक्तिशाली है तो फिर हम परिवर्तन कहां से शुरू करें? चेतना से शुरू करें। आस्था पैदा करनी है, वह चेतना में करनी है, न कि परिस्थिति में । हमारी चेतना में आस्था का बीज बोना है । मुझे विश्वास है कि एक बच्चे में यदि सही ढंग से आस्था उत्पन्न की जाए तो वह प्रतिकूल परिस्थिति के बावजूद भी अच्छे मार्ग पर चल सकता है । ऐसी घटनाएं हमारे सामने बहुत बार आती हैं कि माता-पिता का आचरण अनैतिकतापूर्ण है। पिता व्यापार करता है अनैतिकतापूर्ण, किंतु उसका बच्चा बिलकुल नैतिकता में निष्ठा रखने वाला है और वह पिता को साफ- साफ कहता है- पिताजी, दूसरों को धोखा देकर, छलनापूर्ण व्यवहार कर आप इतना धन कमाते हैं, क्या धन को साथ में ले जाएंगे? मुझे ऐसा धन नहीं चाहिए। आप किसलिए करते हैं? यह अन्तर क्यों आया? परिस्थिति दोनों के सामने एक थी । फिर अन्तर क्यों आया? यह चेतना का अन्तर है । प्रतिकूल परिस्थिति में भी चेतना का विकास किया जा सकता है, यह सही घोष है ।
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हमारी यह प्रतिबद्धता नहीं होनी चाहिए कि जैसी परिस्थिति होगी, वैसा आदमी होगा। बल्कि इस स्थान पर हमारा यह घोष होना चाहिए कि जैसी आस्था होती है, वैसा आदमी होता है। जैसा संकल्प होता है, वैसा आदमी बनता है। समाजशास्त्र का एक सूत्र बना दिया गया कि जैसी परिस्थिति होती है, वैसा आदमी बनता है। यानी आदमी परिस्थिति की उपज है। इस सूत्र ने बहुत भ्रांतियां पैदा कर दी हैं ।
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