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विधायक भाव
भोजन करते हैं, भूख मिटती है । पानी पीते हैं. प्यास बुझती है। हमें सुख का अनुभव होता है। सुख रोटी से मिला, पानी से मिला, और कहीं से आया या हमारे भीतर से निकला ? इस प्रश्न की गहराई में जाने पर ज्ञात होगा कि भूख मिट जाने पर या प्यास बुझ जाने पर भी सुख नहीं मिलता। इसलिए रोटी खाने और सुख के मिलने में अनुबंध नहीं है। उनमें व्याप्ति नहीं है कि एक के होने पर दूसरा हो ही । पदार्थ के मिल जाने पर भी सुख नहीं होता और न मिलने पर भी सुख हो सकता है । पदार्थ और सुख में कोई व्याप्ति नहीं है, कोई 1 निश्चित नियम नहीं है कि ऐसा होने पर ऐसा होता ही है और न होने पर नहीं होता । एक आदमी बहुत संपन्न है। पास में करोड़ों का धन है, पर स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वह दुःख ही भोगता है। एक बहुत बड़े उद्योगपति के घर की महिला ने एक बार कहा - 'महाराज ! मैं अत्यन्त दुःखी हूं।' यह सुनकर सबको आश्चर्य हुआ । पदार्थों के अंबार लगे हुए हैं, सुख-सुविधा के साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, फिर दुःख किस बात का ? उसने कहा- 'पति चल बसे। लडके संपत्ति के बंटवारे के लिए परस्पर में लड़ रहे हैं। घर में प्रतिदिन कलह और संघर्ष होता है। यही दुःख है ।'
ऐसी घटनाओं के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि पदार्थ का सुख के साथ अनुबंध नहीं है। सुख का संबंध हमारे संवेदन के साथ
है
मैं यह दार्शनिक चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि विद्यार्थी का दृष्टिकोण विधायक बनना चाहिए। उसमें विधायक भावों का विकास होना चाहिए। उसमें विधायक दृष्टि का बीज - वपन होना चाहिए । एक दृष्टि से सुख - दुःख की यह परिभाषा की जा सकती है कि विधायक भाव का अर्थ है सुख और निषेधात्मक भाव का अर्थ है दुःख । भय, अहंकार आदि निषेधात्मक भाव हैं। ये सारे दुःख हैं । करुणा, प्रेम, सहृदयता आदि विधायक भाव हैं। ये सारे सुख हैं। वह समाज और
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