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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
चलेगा, वह शुभ संवाद लेकर आएगा। यह आंतरिक प्रक्रिया है । हमारे स्वभाव का निर्माण करने वाले न्यूक्लीड एसिड आदि जो रसायन हैं हम उन्हें सजेशन या संकल्प शक्ति के द्वारा बदल सकते हैं। जब रसायन बदलते हैं तब सारी क्रियाएं बदल जाती हैं।
अनुप्रेक्षा का मूल तत्त्व है - अभ्यास । इससे स्वभाव, चरित्र और व्यवहार को बदला जा सकता है। केवल सिद्धान्त को जानने मात्र से परिणाम नहीं आता । आज अहिंसा के सिद्धान्त को जानने वाले बहुत हैं, पर उसको जीने वाले बहुत कम हैं । इसीलिए अहिंसा की चर्चा करने वाले अधिक हिंसा और परिग्रह में लिप्त पाए जाते हैं । प्रत्येक धर्म का अभ्यास अपेक्षित होता है तभी वह जीवन में रूपान्तरण घटित करता है। अनुप्रेक्षा के वाक्य को पचास बार दोहराएं। दोहराते दोहराते शब्द गौण हो जाए और उसके अर्थ के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाए। ऐसा होने पर वह संस्कार हमारे में सक्रिय हो जाएगा। यदि यह अभ्यास तीन महीने तक निरन्तर चलता है तो वांछित परिणाम आ सकता है। यह तब केवल सिद्धान्त नहीं रहेगा, जीवन का व्यवहार बन जाएगा। प्रयोग के द्वारा ही सिद्धान्त को व्यावहारिक बनाया जा सकता है।
बौद्धिक विकास के लिए भी बच्चे शब्दों को दोहराते हैं । दस-बीस बार दोहराने से वे शब्द कंठस्थ हो जाते हैं । इसी प्रकार संस्कार का निर्माण करने के लिए शब्दों को हजार बार दोहराना जरूरी है। अनुप्रेक्षा का अर्थ है - पुनरावृत्ति करना । इसे भावना कहा जाता है। आयुर्वेद में भावना का बहुत प्रचलन है । उसमें सौ भावनाओं से भावित, हजार भावनाओं से भावित आदि औषधियां होती हैं । उनके परिणाम में बहुत बड़ा अन्तर आ जाता है। जैसे जैसे औषधि भावित होती जाती है, सूक्ष्म होती जाती है, वैसे वैसे उसकी शक्ति बढ़ती जाती है। यह सही है कि आवृत्तियां बढ़ेंगी, उतनी ही क्षमता बढ़ेगी । वह आवृत्ति एक फ्रीक्वेन्सी में चलती है तो क्षमता में संवर्धन होता है । यह अनुप्रेक्षा का ही प्रयोग है ।
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