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नैतिकता की समस्या
सत्य की खोज का एक प्रयोग चल रहा है। उसमें सारे सहभागी हो रहे हैं। दर्शन और चिंतन का काम केवल जानना नहीं है। वास्तव में उसका काम है जानना और करना। दोनों विभक्त नहीं हैं। संस्कृत साहित्य में जानने के अर्थ में करना और करने के अर्थ में जानना आ जाता है। जितनी गत्यर्थक धातुएं हैं, वे सब ज्ञानार्थक भी हैं। 'गम्' धातु गति के अर्थ में है। गति एक क्रिया है। ज्ञान और क्रिया को कभी अलग नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी कठिनाई यह रही कि आदमी ने सिद्धान्त को बहुत महत्त्व दे डाला और प्रयोग को भुला दिया। पीछे कोरा ज्ञान बच गया। वह लंगड़ा हो गया, एकाक्ष बन गया। दो पैर, दो हाथ, दो आंखें, दो कान, दो नथुने होते हैं तो काम ठीक होता है। बायां और दायां-ये दोनों शक्ति के स्रोत हैं। दाएं को छोड़कर बाएं की शक्ति नहीं होती और बाएं को छोड़कर दाएं की शक्ति नहीं होती।
कहा जाता है कि अनैतिकता समाज की सबसे बड़ी समस्या है। यह दूसरे नम्बर की समस्या है। मुख्य समस्या है-ज्ञान और क्रिया की दूरी,कथनी और करनी की दूरी।
एक साधु ने युवक से कहा-'तुम व्यसनों में फंसे हुए हो, शराब पीना और चोरी करना छोड़ दो। अन्यान्य व्यसन भी छोड़ दो। युवक बोला-'छोड़ दूंगा।' संन्यासी ने जिस चीज को छोड़ने के लिए कहा, युवक स्वीकृति देता गया। संन्यासी को आश्चर्य हुआ। अंत में संन्यासी बोला-तुम झूठ बोलना छोड़ दो। युवक बोला-यह तो नहीं छोड़ सकता। संन्यासी ने कहा-यदि झूठ बोलना नहीं छोड़ सकते तो कुछ भी नहीं छोड़ सकते । तुम दूसरी चीजें छोड़ो या न छोड़ो, झूठ बोलना छोड़ दो।
मूल समस्या है, कथनी-करनी या ज्ञान और क्रिया की दूरी की समस्या। यदि यह दूरी न रहे तो नैतिकता का अवतरण अपने आप हो जाता है। आचार्य तुलसी ने जब अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन
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