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________________ अम्वृद्धीपप्रचप्तिसूत्रे पोरेवच्चं भट्टित्तं सामित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे' आधिपत्यम् अधिपते र्भावः मुख्यत्वम् पौरोवृत्यम् पुरोवर्तित्वम् अग्रेसरता भर्तृत्वं पतित्वम् स्वामित्वम् नायकत्वम् महत्तरत्वम् अतिशयमहत्वम् आज्ञेश्वरन्वम् सेनापत्यं सेनानेतृत्वम् कारयन् पाव्यन् रक्षयन् मुखानि भुङ्क्तेस भरतः केषु सत्सु स सुखानि भुङ्क्ते इत्याह 'ओहयणिहएम' इत्यादि 'ओहयणिहएमु कंटएसु' उपहतनिहतेषु कण्टकेषु तत्र उपहतेषु विनाशितेषु निहतेषु च अपहृतसकलप्तमृदिषु कण्टकेषु तत्स्वरूपेषु गोत्रजशत्रुषु तथा 'उद्धियमलिएमु सव्वसत्तुसु' उद्ध्तमर्दितेषु सर्वशत्रुषु तत्र उद्धृतेषु देशान्निर्वासितेषु मर्दितेषु च मानहानि प्रापितेषु सर्वशत्रुषु अगोत्रजवैरिषु एतत्सर्व कुतोभवतीत्याह 'णिजिएसु' निर्जितेषु भग्नबलेषु सर्वशत्रुषु मोक्तप्रकारद्वयशत्रुषु, अत्र सर्वशत्रुषु इति पदं देहली प्रदीपन्यायेन उभयत्र सम्बन्धः, कीदृशो भरतः सुखानि भुङ्क्ते इत्याह--'भरहाहिवे' इत्यादि 'भग्हाहिवे परिदे' भरताधिपो नरेन्द्रः 'वरचंदणचच्चिअंगे' वरचन्दनबच्च कारेमाणे पालेमाणे) तथा और भो अनेक राजेश्वर तलवर आदि से लेकर सार्थवाह संक के जनों का आधिपत्य करते हुए अप्रेलरपना करते हुए भर्तृत्व-स्वामोपना करते हुए उनका संरक्षणत्व करते हुए उनका नेतृत्व करते हुए, उनका सेनापत्य करते हुए और अपनी माज्ञा का उन सब से पालन करवाते हुए, (माणुस्से सुहे भुंजइ) मनुष्यभव संबन्धी सुखों को भोगते हुए अपना ममय शान्ति के साथ व्यतीत करने लगे (मोहय निहएसु कंटएसु) क्योंकि उनके गोत्रज एवं अगोत्र न समस्त शत्रु नष्ट हो चुके -थे एवं वे शत्रु सम्पत्ति विहीन हो चुके थे (उद्रियमलिएसु सनसत्तुसु) देश से निर्वासित हो चुके थे मानहानि युक्त हो चुके ये (णिज्जिएसु) सेना विहीन हो चुके थे (भरइाहिवे णरिंदे) इस कारण सम्पूर्ण ६ खंडवाले भरत क्षेत्र के अधिपति ये बन चुके थे और नरों में-प्रजाजनो मे-ये इन्द्रके जैसे चक्रवर्तित्व की अनुपम असाधारण विभूति से युक्त होने के कारण । मान्य हो चुके थे हर समय (वरचंदणचच्चियंगे) इनका शरीर श्रेष्ठ चन्दन से चर्चित बना मावच्चं पोरेवच्चं भडित्तं सामित्तं महत्तरगतं आणाईसर-सेणावच्च कारेमाणे पाले माणे) तमना भील ५५ भने २२वर तपथी भांडीने साया सुधीना ५२ આધિપત્ય કરતાં, અગ્રગામિત્વ કરતાં, ભતૃ વકરતાં, સેનાપત્ય કરતાં અને પિતાની शनु सर्पन पासन रावतi (माणुस्से सुहे भुजइ) मनुष्यभर समधी सुमोने तापातानासमय शतपू४ व्यतीत ४२५1 amया. (ओहयनिहएसु कंटएम) भ તેમના ગોત્રજ અને અગાત્રજ સમસ્ત શત્રુઓ નાશ પામ્યા હતા. અને તેઓ સંપત્તિ विडीन / या . (उद्धियमलिएसु सव्वसत्तसु) शिथी ५७२ ते निवासित यूयाता, भान बानि युदत / यूइया उता. (णिज्जिएसु) सेना विलीन ईयूच्या H.. (भरहाहिवे परिंदे) 20 सपूम' पा भरतक्षेत्रना मेमा मधिपति / ચૂક્યા હતા. અને નરોમાં–પ્રજા જનમાં-એ ભરત નૃપતિ ઈન્દ્ર જેવા ચક્રવતી ત્વની અનુપમ-અસાધારણ વિભૂતિથી યુક્ત હોવા બદલ સમ્માન્ય થઈ ચૂક્યા હતા. દર વખતે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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