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________________ प्रकाशिका टीका तृ.३ वक्षस्कारः सू० ३३ षट्खण्डं पालयतो भरतस्य प्रवृत्तिनिरूपणम् ९६५ चर्चिताङ्गः वरचन्दनेन श्रेष्ठचन्दनेन चर्चितं समण्डलं कृतम् अङ्गं यस्य स तथाभूत: पुनः कीदृशः 'वरहाररइयवच्छे' वरहाररतिवक्षस्कः वरहारेण श्रेष्ठमुक्तादिहारेण रतिदंद्रष्टणां नयनसुखकारकं वक्षो वक्षस्थलं यस्य स तथाभूतः पुनः कीदृशः 'वरमउडविसिहए' वरमुकुटविशिष्टकः श्रेष्ठशिरोभूषणमुकुटधारणेन विशेष शोभामापन्नः तथा 'वरवत्थभूसणभरे' वरवस्त्रभूषणधरः, पुनः कोदृशः 'सब्बोउयसुरहिकुसुमवरमल्लसोभियसिरे' सर्वतुक सुरभिकुसुमवरमाल्यशोभितशिरस्कः सर्वर्तुकसुरभिकुसुमानां वरमाल्यैः श्रेष्ठ मालाभिः शोभितशिरस्कः, पुनः कीदृशः 'वरणाडग णाडइज्जवरइत्थिगुम्मसद्धिं संपरिबुड़े' वरनाटक वरनाटकीय वरस्त्रीगुल्मसार्द्ध संपरिवृतः तत्र वरनाटकानि पात्रादि समुदायरूपाणि नाटकीयानि च नाटकप्रतिबद्धं पात्राणि तैः तथा वरस्त्रीणां गुल्मम् अव्यक्तावयव विभागवृन्दं तेन च साद्धै सम्परिवृतः युक्तः गुल्मेत्यत्र तृतीयालोप आर्षत्वात्, पुन: कोदृशः 'सम्वोसहि सव्वरयण सव्वसमिइसमग्गे' सौंपधि सर्वरत्नसर्वसमितिसमग्रः सर्वोषध्यः पुनर्नवाद्याः, सर्वरत्नानि कर्केतनादीनि सर्वसमितयः अभ्यन्तरे बाह्ये च पर्षदस्ताभिः समग्रः सम्पूर्णः अतएव 'संपुण्णमणोरहे' सम्पूर्णमनोरथः सर्वमनोरथैः पूर्णः पुनः कीदृशः 'हयामित्तमाणमहणे' हतामित्रमानमथनः हतानां बलवीर्यपराक्रमरहता था (वरहाररइयवच्छे) वक्षःस्थल पर दृष्टा जन को आनन्दप्रद श्रेष्ठ हार विराजित रहता था (वरम उडविसिट्टाए) मस्तक श्रेष्ठ मुकुट से विशेष से शोभा संपन्न बना रहता था (वरवत्थभूसणधरे) अति सुन्दर वस्त्रों को एवं भूषणों को ये धारण किये हुए रहते थे (मन्वोउयसुरह कुसुमवरमल्लप्सोभियसिरे) इनका मस्तक समस्त ऋतुओं के सुरभित कुसुमों की श्रेष्ठ मालाओं से विभूषित रहता था, (वरणाडगणाडइज्ज वरइत्थिगुम्मसद्धिं संपरिडे) श्रेष्ठ नाटको, श्रेष्ठ नाटकीय अभिनयों, और श्रेष्ठ स्त्रियों के अव्यक्त अवयव विभागसमूह से ये सदा घिरे हुए रहते थे (सव्वोसहिसव्वरयणसव्वसमिइसमग्गे) सर्व प्रकार की पुनर्नवा आदि ओषधियों से, कर्केतनादि समस्त रत्नों से और बाह्य आभ्यन्तर परिषदारूप समिति से ये हरे भरे बने रहते थे अतएव (संपुण्णमणो रहे) कोइ भी इतका मनोरथ अधूरा (वरचंदणवच्चियंगे) समनु शरीर श्रेष्ठ यन्दनथी यति (सि.) २७तु तु (वरहाररइयवच्छे) वक्षस्थल ५२ ४श भाटे मान प्र श्रेष्ठ डा२ विलित रहेता तो. (वरमउडविसिटए) भरत श्रेष्ठ भुट थी सविशेष शोभासम्पन्न २९तु (वरवत्थभूसणधरे) मति सु१२ १२त्री अने आभूषाने थे। परी रामता ता. (सव्वोउय सुरहि कुसुमवरमल्स सोभियसिरे)भनु मस्त। स तुमेना सुमित उसुकोनी श्रेष्ठभागामाथी विलित २३तु तु. (वरणाडगणाडहज्जवरात्थिगुम्मसद्धिं संपरिवुडे) श्रेष्ठ नाटी, श्रेष्ठ नाटकीय અભિનય અને શ્રેષ્ઠ સ્ત્રીઓના અવ્યકત અવયવ વિભાગ સમૂહથી એ સર્વદા પરિવૃત્ત २उता उता. (सव्वोसहिसव्वरयण सव्वसमिइसमग्गे)स प्रअरनी पुनर्नवा वगेरे ઔષધીઓથી, કતનાદિ સમસ્ત રત્નથી અને બાહ્ય આત્યંતર પરિષદારૂપ સમિતિથી यो प्र मान २उता डा. मेथी (संपुण्णमणोरहे) ओमनी 54 भना२५ सपू २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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