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________________ ९०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'जय जय गंदा' इत्यादि 'जय जय गंदा' हे नन्द हे आनन्द स्वरूप ! भरत ! 'जय जय भदा' हे भद्र ! कल्याण का चक्रवर्तिन् जय जय अजितशत्रून् विजयस्व विजयस्व 'जय जय भद्दा !' हे भद्र ! कल्याणस्वरूप ! जय जय 'भदंते' ते तुभ्यं भद्रं कल्याणं भूयात् 'अनियं जिणाहि' अजितम् अपराजितं प्रतिशत्रु जय विजयस्व 'जिय पालयाहि' जितम् आज्ञावशंवदं पालय रक्ष 'जियमज्झे वसाहि' जितमध्ये आज्ञावशंवदमध्ये वस-तिष्ठ जितपरिजनैः परिवृतो भव इत्यर्थः 'इंदोविव देवाणं' इन्द्र इव देवानां वैमानिकानां मध्ये सर्वत ऐश्वर्यवान् इत्यर्थः 'चंदोविव ताराणं' चन्द्र इव ताराणां नक्षत्राणां मध्ये चन्द्रमा इव 'चमरो विव असुराणं' चमर इव असुराणां दाक्षिणात्यानाम पुराणां मध्ये चमर नामकासुरेन्द्र इव 'धरणो विव नागाणं' धरण इव नागानाम्-नागानां मध्ये धरणनामक नागकुमार इव 'बहूइं पुव्वसयसहस्साई' बहूनि पूर्वशतसहस्त्राणि बहूनि पूर्वलक्षाणि 'बहूईभो पुचकोडीओ' बहीः पूर्वकोटीः 'बहूईओ कोडाकोडीभो' बहीः पूर्व कोटाकोटीः 'विणीयाए रायहाणीए' विनीतायाः राजधान्याः प्रजाः पालयन् 'चुल्ल हिमवंतगिरिसागरमेरागस य' क्षुल्लहिमवनिरिसागरमर्यादाकस्य च क्षुल्लहिमवगिरिः पस्यां दिशि क्षुद्रहिमवत्पर्वतः अपरत्र च दिशात्रये प्रयः सागराः तैः कृताया स्तुति करते हुए ऐसा कहा-है नन्द ! आनन्द स्वरूप भरत चक्रवर्तिन् ! तुम्हारा जय हो तुम अजित शत्रुओं पर विजय पाओ हे भद्र-कल्याणस्वरूप भरत ! तुम्हारी वारंवार जय हो (भदंते) तुम्हारा कल्याण हो (अजियं निणाहि) जिसे दूसरा वीर परास्त नहीं कर सके ऐसे शत्रु को तुम परास्त करो, (जियं पालयाहि) जो तुम्हारी आज्ञा माननेवाले हैं उनकी तुम रक्षा करो (जियमज्झे वसाहि) जित व्यक्तियों के बीच में आप रहो-अर्थात् परिजनों से आप सदा परिवृत्त बनेरहो (इंदोविव देवाणं) वैमानिक देवों के बीच में इन्द्र की तरह (चंदोविव ताराण) ताराओं के बीच में चन्द्र की तरह (चमरोविष असुराण) असुरों के बीच में अपुरेन्द्र असुरराज चमर को तरह (धरणोविव नागाणं) नागकुमारों के बीच में धरण नामक नागकुमार की तरह तुम (बहूई पुवसयसहस्साई) अनेक लाख पूर्वतक (बाइओ कोडाकोडीओ) अनेक कोटाकोटी पूर्वतक (विणीयाए रायहाणीए) विनीता राजधानी की प्रजा का पालन करते हुए (चुल्लहिસ્વરૂપ ભરત ચક્રવતી ! તમારો જય થાઓ, તમે અજીત શત્રુઓ ઉપર વિજય મેળવે. હે भद्र, ४८या ११३५ भरत ! तभा पार पा२ सय था(भईते) तभार ४८या था। (अजियं जिणाहि) २२ भान वी२ वी शो नहि मेवा शत्रुतमे ५२२रत ४. (भियं पालयाहि) २३ तभारी माज्ञानु पासन रेछ भनी तमे २क्षा २२. (जियमझे पसाहिर વ્યક્તિઓને આપે જીતી લીધેલ છે તેમની વચ્ચે તમે રહો એટલેકે જિનેથી તમે સર્વદા પરિવૃત્ત २१.. (इंदोविव देवाण) वैमानि वाम तमे धन्द्रनी म (चंदोधित्र ताराण) तारामाना पस्ये यन्द्रनारेम, (चमरोविव असुराण) असुरोनी थ्ये मसुरेन्द्र सु२२। यभरनारेम(ध रणो विध नागाण) नागभारे नी पश्ये घर नाम नागभारनी रेम (बहूई पुखसयसह. स्लाई) भने पूर्व सुधा (बहूईओ कोडाकोडीओ) भने टाटी वसुधा (विणीयाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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