SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 915
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका तृ०३ वक्षस्कारःसू० २९ स्वराजधान्यां श्री भरत कार्यदर्शनम् ९०१ मर्यादा अवधिः सा अस्ति यस्मिन् तत्तथा तस्य एवंभूतस्य च 'केवलकप्पस्स' केवलकल्पस्य सम्पूर्णस्य ‘मरहस्स वासस्स' भारतवर्षस्य 'गामागरणगरखेड कब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसण्णवेसेसु' ग्रामाकरनगरखे टकर्बट मडम्ब द्रोण मुखपत्तनाश्रम सन्निवेशेषु तत्र ग्रामः प्रसिद्धः आकरः यत्र सुवर्णाद्युत्पद्यते नगरम् - प्रसिद्धम् खेटः धूलिका प्राकारसहितं नदी पर्बतवेष्टितं च नगरम् कर्बटः कुत्सितनगरम् मडम्बम् एकयोज - नान्तरग्रामरहितम् द्रोणमुखम् जलस्थलप्रवेशम् पत्तनम् - प्रसिद्धम् आश्रमं तापसानां निवासस्थानम् नगरबाह्यप्रदेश: आभीरादि निवासस्थानम् सन्निवेशा: आगन्तुक निवासस्थानानि तेषु 'सम्मं' सम्यक्कू 'पयापाळणोवज्जिय लद्धजसे' प्रजापालनोपार्जितलब्धयशस्कः सम्यक् प्रजापालनेन उपार्जितम् एकत्रीकृतं यल्लब्धं निजभुजपराक्रमैः प्राप्तं यशो येन स तथा पुनः कीदृशः 'महया जाव आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव विहरइ' महता यावत् आधिपत्यं पौरपत्यं यावत् विहर विचर, अत्र प्रथमयावत्पदात 'महयाहयणमवंत गिरिसागरमे रागरस य केवलकप्पस्स भरहस्स वासरस गामागरण गरखेड कब्बड मडंब दोणमुहपट्टणास मसण्णिवेसेसु) उत्तर दिशा में क्षुद्र हिमवत्पर्वत एवं तीन दिशाओं में तीन सागरों द्वारा जिसकी मर्यादा की गई हैं ऐसे इस केवल कल्प- सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के ग्राम, आकर नगर खेट कर्बेट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, और सन्निवेश इन संबस्थानों में ( सम्म) अच्छी तरह से ( पयापालणो वज्जियलद्धजसे महयाजाव आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव विहरइ ) प्रजाजनों के पालन से उपार्जित किये हुए तथा अपने भुज पराक्रम से प्राप्त हुए यश से समन्वित हुए दक्ष बजानेवालों के हाथों से जोर २ से जिनमें समस्त प्रकार के वाजे बजावे जा रहे हैं ऐसे विविध नाटकों को एवं गीतों को देखते हुए सुनते हुए विपुल भोग भोगों के भोगभोग पद की व्याख्या पोछे की जा चुकी है, ग्राम आकर आदि स्थानों का स्वरूप भी पीछे के tri में प्रकट कर दिया है एवं "महया के जाव" से गृहीत नाट्यगीत वादिततन्त्रीतल०" पां रायद्दाणीप) विनीता राजधानी नी अनुपालन उतi ( चुल्लहिमवंत गिरिसागर मेरा rta य केवलकप्पस्स भरहस्त वासस्स गामागरणगरखेड कब्बड मड' बदोणमुहपट्टणालमणिसेसु) उत्तर दिशामा क्षुद्र हिभवत्पूर्वत सुनेत्रा हिशायामां त्र सागरी वडे જેની સીમા નિશ્ચિત કરવામાં આવી છે, એવા એ કેવલ૫-સ પૂર્ણ ભરતક્ષેત્રના ગ્રામ, આકર, નગર, ખેટ, કખટ, મડબ, દ્રોણુમુખ, પત્તન અને સન્નિવેશ એ સર્વ સ્થાને માં (सम्म) सारीरीते (पयापालणोवज्जियल द्धजले महया जाव आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव विहरह) अन्जना पासनथी समुपाति ते पोताना न पराभथी प्राप्त यशथी समन्वित થયેલા ચતુર વાદ્ય વગાડનારાઓના હાથાથી જોર-જોરથી જેમાં સર્વ પ્રકારના વાદ્યો વગાઢવામાં આવી રહ્યાં છે,એવા વિવિધ નાટકોને તેમજ ગીતાને જોતાં, સાંભળતાં વિપુલ ભેગ ભાગાને ભાગવતા ભાગ' પદની વ્યાખ્યા ર્વે કરવામાં આવી છે. ગ્રામ આકર આદિ સ્થાનાનું स्वयम स्पष्ट वामां आवे छे. तेमन "महया जाव" थी गृहीत 'नाट्यगीतवादित तन्त्रीतल० " पहानी व्याच्या पाशु डेटा स्थानां भाव छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy