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________________ प्रकाशिका टीका तुं०३ वंश्नस्कार: सुं० २७ दक्षिणार्द्धगतभरत कार्यवर्णनम् ८५१ इति, कल्पपुस्तकप्रतिपाद्याः अर्था साक्षादेव तत्रोत्पद्यन्ते इति तथा ध्रुवाः निश्चलाः तथाविधपुस्तक रूप स्वरूपस्यापरिहाणेः अक्षयाः अविनश्वराः अवयविद्रव्यस्य अपरिहा : अव्ययाः तदारम्भकम देशापरिहाणेः अत्र प्रदेशापरिहाणि युक्तिः समयसंवादिनी पद्मवrवेदिका व्याख्या समये निरूपितेति ततोऽवसेया अत्र पदद्वये मकारोऽलाक्षणिकः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः सदेवाः अधिष्ठायकदेवकृत सान्निध्या इत्यर्थः लोकोपचयङ्करा अस्य तीर्थकरादिवत् साधुत्वम् यद्वा अनुस्वारः आर्यत्वात् लोकोपचयङ्कराः -वृत्तिकल्पक कल्पपुस्तकप्रतिपादनेन लोकानां पुष्टिकारकाः लोकविश्रुतयशस्काः लोकविख्यात कीर्त्तयः 'एवं विशेषणविशिष्टा नवनिधयः उपागताः ' अथ नामतः तान् नवविधीन उपदर्शयति 'तं जहा ' इत्यादिना सप्पे १ पंडुअए २ पिंगलए ३ सव्वरयण ४ महपउमे ५ काले ६ अ महाकाले ७ माणव महानिही ८ संखे ९ । १ । तत्र नैसर्पः नैसर्पस्य देवविशेषस्यायं नैसर्पः पुस्तकों में विश्व की स्थिति कही गई हैं किन्ही २ के मतानुसार कल्प पुस्तक प्रतिपाद्य पदार्थ साक्षात् उन निधियों में उत्पन्न होते हैं तथा ये ध्रुव है क्यों कि तथाविध पुस्तक वैशिष्ट्य रूप स्वरूप इनका नष्ट नहीं होता हैं, अवयव द्रव्य की अविनाशिता को लेकर ये अक्षय है, तदारम्भक प्रदेशों की अविनाशिता को लेकर ये अव्यय है, प्रदेशों की अपरिहीनता के सम्बन्ध में युक्ति सिद्धान्त के अनुसार पद्मवरवेदिका की व्याख्या करते समय कही जा चुकी हैं, इसलिये जिज्ञासु जनको वहीं से इसे देखलेनी चाहिए, "धुवमक्स्वयं" में मकार का प्रयोग मलाक्षणिक है, "लोकोपचयङ्कर" पद की निष्पत्ति " तीर्थंकर" पद की निष्पत्ति की तरह से ही जाननी चाहिये अथवा आर्ष होने के कारण यहां अनुस्वार कर दिया गया हैं वृत्तिकल्पक कल्पपुस्तक के प्रतिपादन से ये लोकों की पुष्टि कारक होती हैं उन नौ निधियों के नाम इस प्रकार से कहा गया है - 'नेसप्पे १, पंडुभए २, पिंगलए ३, सव्वरयण ४ महपउमे ५ | काले ६ महाकाले ७ माणवगे महानिही ८ संखे ९ ॥ ९ ॥ (१) नै सर्पनिधि - यह नैसर्पनामक देव से अधिष्ठित होती है (२) पाण्डक निधि. यह निधि पण्डुक नामक देव से अधिष्ठित होती है (३) पिंगलक निधि - यह पिंगलक नामक देव से अधिધ્રુવ છે. કેમ કે તથાવિધ પુસ્તક વૈશિષ્ટય રૂપ સ્વરૂપ એમનું નાશ પામતુ નથી અવયવી દ્રવ્યની અવિનાશિતાને લઈને એએ અક્ષય છે. તદ્વાર ભક પ્રદેશાની અવિનાશિતાને લઈને એ અવ્યય છે. પ્રદેશોની અપરિહીનતાના સબંધમાં યુકૃિત સિદ્ધાન્ત મુજબ પદ્મવરવેદિકાની વ્યાખ્યા કરતી વખતે કહેવામાં આવી છે. એથી જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જ જાણુવા પ્રયन ४२. ' धुवमक्खयं" भां भारने प्रयोग अवाक्षलिङ छे. 'लोकोपचयङ्कर" पहनी निंव्यत्ति "तीर्थंकर" यहनी निष्यत्तिनो प्रेम भगवी लेडो अथवा भार्ष होवाथी सही અનુસ્વાર કરવામાં આવેલ છે. વૃત્તિકલ્પક કલ્પપુસ્તકના પ્રતિપાદનથી એ લાકો માટે પુષ્ટિ ४।२४ हाय छे. ते नव निधियो ना नाभो या प्रमाणे छे ने सप्पे - पंडुमए-२, पिंगलप - ३, सव्वरयण-४, महपउमे-५, कालेय-६, महाकाले - ७, माणवगे महानिद्दी-८, संखे ॥८॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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