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________________ प्रकाशिका टीका तृ० बक्षस्कारः सू० १५ तमिस्रागुहा दक्षिणद्वारोद्घाटननिरूपणम् ७०७ वयासो' शब्दयित्वा आहूय एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत् उक्तवान् 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! 'आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह' अभिषेक्या-अभिषेकपोग्य पट्टहस्तिनं साहस्तिप्रधानमित्यर्थः हस्विरत्नं प्रतिकल्पयत सज्जीकुरुत ‘हयगयरहपवर तहेव जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवरं करवई दूरूढे ' हयगजरथ प्रवर तथैव यावत् अञ्जनगिरिकूटसन्निभम् अञ्जनपर्वतकूटवत् कृष्णवर्णमुच्चं च गजवरं हस्तिश्रेष्ठं नरपतिः भरतो राजा दृरूढे आरूढः सन् यत्कृतवान् तदाह ॥सूत्र१४॥ गजरूढः सन् नृपतिः यत्कृतवान्तदाह ---- 'तए णं' इत्यादि। मूलम्-तएणं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ तोतं चउ रंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्य तंसि छलंसं अणोवमजुई दिन मणिरयण पतिसम वेरु लिअं सबभूअकंत जेणय मुद्धागएणं दुक्ख ण किंचि जाव हवइ आरोग्गे य सव्वकालं तेरिच्छिअ देवमाणुसकयाय उवसग्गा सव्वे ण करेंति तस्स दुक्खं संगामेऽपि असत्थाज्झो होइ णरोमणिवरं धरतो ठिय जोवण केसअवट्ठियणहो हवइ य सव्वभयविप्पमुक्को तं मणिरयणं गहाय से णरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए णिक्खिवइ तएणं से भरहाहिवे णरिंदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे जाव अमरवइसण्णिभाए इद्धीए पहियकित्ती मणिरयणकउज्जोए चक्करयणदेसियमग्गे अणेगरायसहस्साणुयायमग्गे महया उक्किट्ठ सीहणाय बोलकलरवेणं समुदरवभूअंपिव करेमाणे करेमाणे जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्ले को बुलाया- (सहावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे उसने ऐसा कहा- (विप्पामेव भो देवानुप्पिया ! आभिसेक्कं हस्थिरयणं पडि कप्पेह) हे देवानुप्रियो ! तुम बहुत ही जल्दी आभिषेक्य हस्तिरत्न को- अभिषेक योग्य प्रधान हस्ति को सजाओ (हय गयरह पवर तहेव जाव अंजनगिरि कूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे) इसके बाद हय, गज, रथ प्रवर यावत् अंजनगिरि के कुट जैसे श्रेष्ठ हस्ती पर भरतराजा आरूढ हुआ -॥१४। सम्माणिता कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ ) सार तभार सन्मान अरीने पछी तो भी पुरुषो मोवाया (सदाबित्ता एवं बपासो) मानते पुरुषोन तो मा प्रभार ४ (निप्पामेव भा देवाणुपिया ! आभिसेक हस्थिरयण पडिकप्पेह) देवानुप्रियो ! तमे मई शी मान५५२ २नने मनिष याय प्रधान तीन सुसnिd ४२।. (हयगयरह पर तहेव जाव प्रजणागेरि कूडसहणिभं गयवईणरवई दुरूढे) त्या२ मा ख्य, ७, २थ, १२ यावत मनजिनिट श्रेष्ट सस्ती ०५२ १२२ ॥३० था. सू१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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