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________________ प्रकाशिका टीका सु. १० भरतक्षेत्रस्वरूपनिरूपणम् ५७ णलवण समुद्रस्य 'उत्तरेणं' उत्तरे - उत्तरदिग्भागे, 'पुरस्थिम लवणसमुहस्स पच्चत्थिमेण ' पौरस्त्यलवण समुद्रस्य पश्चिमे - पश्चिमदिग्भागे 'पच्चत्थिमलवण समुद्दस्स' पाश्चात्यलवण समुद्रस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये - पूर्वद्विग्भागे, 'एत्थ णं जंबूद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते' अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतं नाम वर्षं प्रज्ञप्तम् । तत् कीदृशम् ? इति जिज्ञासायामाह - 'खाणु बहुले' स्थाणुवहुलम् - स्थाणुभिः पल्लवादिरहितशुष्कवृक्षैः 'ठूंठा' इति प्रसिद्धैः, बहुलम् व्याप्तम् यद्वा-बहुलाः स्थाणवो यस्मिंस्तत्तथा, एवमग्रे sपि 'कंटगबडुले' कण्टकबहुलं बर्बुरबदरीखदिरादि कण्टकव्याप्तम्, 'विसमबहुले' विषमबहुलम् निम्नोच्चस्थानव्याप्तम्, 'दुग्गबहुले' 'दुर्गबहुलम्' दुष्प्रवेशस्थानव्याप्तम् लवण समुदस्स पच्चत्थमेणं पच्चत्थिम लवण समुहस्स पुरत्थिमेणं एत्थणं जम्बुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते" हे गौतम ! भरतादि क्षेत्रों को सीमा करने वाले लघुहिमवान् पर्वत के दक्षिणदिग्भाग में, दक्षिणदिग्वर्ती लवण समुद्र के उत्तरदिग्भाग में पूर्वदिग्भागवर्ती लवण समुद्रकी पश्चिम दिशामें एवं पश्चिमदिग्भागवत लवण समुद्रकी पूर्वदिशा में यह जम्बूद्वीपगत भरतक्षेत्र है, यह भरत क्षेत्र “खाणुबहुले, कंटगबहुले, विसमबहुले, दुग्गबहुले फन्वयबहुले, पवायबहुले, उज्झर बहुले' स्थाणु बहुल है अर्थात् इसमें स्थाणुओं की टूठों की अधिकता है. ये ठूंठे पत्र पुष्पादि से रहित होते हैं और निरस - शुष्क होते हैं - अर्थात् जो वृक्ष उखट जाते है वे पत्र पुष्पादि से रहित होते हुए सूख जाते हैं और जमीन में ही गढे रहते हैं इन्हें ही स्थाणु कहा गया है । ऐसे ठूठों से यह भरतक्षेत्र व्याप्त है. अथवा ऐसे ठूठों की इस भरत क्षेत्र में बहुलता - अधिकता है तथा ऐसे ही वृक्षों को यहां वहुलता है जो कण्टको वाले हैं- जैसे-बबूल, बेर और खैर आदि के वृक्ष यहां पर होते हैं यहां की जमीन का भाग अधिकांश ऐसा ही है कि जो नीचाऊँचा है सर्वथा सम नहीं है बहुत से स्थान रस्स दाहिणेण दाहिणलवणसमुहस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेण पच्च स्थिमलवण समुहस्स पुरत्थिमेणं पत्थणं जवुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते" હૈ ગૌતમ! ભરતાદિ ક્ષેત્રોની સીમા કરનાર લઘુ હિમવાન્ પવંતતા દક્ષિણ કિંગ્ ભાગમાં દક્ષિણ દિગૂવત્તી' લવણ સમુદ્રના ઉત્તરદ્વભાગમાં પૂર્વ ઈંગ્ ભાગવતી લવણુ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમ દિગ્ ભાગવતી લવઝુ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં श्रीपगत भरत क्षेत्र छे मा भरत क्षेत्र "खाणु वहुले, कंटग बहुले, विसम बहुले दुग्ग बहुले पव्वय बहुले पवायबहुले उज्झरबहुले” स्थाणुं महुस छे, पेटसे } આમાં સ્થણુાની-હુંડાંએની અધિકતા છે. આ સ્થાણુ એ પત્ર પુષ્પાદિથી રહિત હાય છે. અને નીર-શુષ્ક હાય છે. એટલે કે જે વૃક્ષેા ઊખડી જાય છે તે બધા પુત્ર-પુષાદિ રહિત થઈ ને શુષ્ક થઈ જાય છે અને જમીનમાં જ ઊભા રહે છે. એમને જ સ્થાણુ કહેવામાં આવેલ છે. એવા ઠૂંઠાંએશી આ ભરતક્ષેત્ર વ્યાપ્ત છે અથવા એવા હું ઠાંએની આ ભરત ક્ષેત્રમાં બહુલતા અધિકતા છે. તેમજ કાંટાવાળા વૃક્ષાની પણ અહી અધિકતા છે. બાવળ, ખેરડી, ખેર વગેરે અનેક વૃક્ષો અહી પુષ્કળ પ્રમાણમાં છે. અહીંની જમીનને અધિકાંશ ભાગ 1 ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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