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________________ प्रकाशिकाटीका ४० वक्षस्कारः सू. ११ सिन्धुदेवीसाधननिरूपणम् ६४९ पौषधशालायां पौषधिका-पोषधव्रतवान् अतएव 'बंभयारी' ब्रह्मचारी 'जाव दमसं. थारोबगए' यावदर्भसंस्तारकोपगतः सार्द्धवयहस्तपरिमितदर्भासने उपविष्टः सन् अत्र यावत्पदात् उन्मुक्तमणिसुवर्ण इत्यादि सर्वे पूर्वोक्तं ग्राह्यम् अष्टमभक्तिक:-कृताष्टमतपाः सिन्धुदेवी मनसि कुर्वन् तिष्ठति । 'तएणं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि सिधूए देवीए आसनं चलइ' ततः खलु तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्ते परिणमतिपरिपूर्णप्राये जाते संगच्छति सति सिन्ध्वा देव्या आसनं सिंहासनं चलति 'तएणं सा सिंधु देवी आसणं चलियं पासइ' ततः खलु सा सिन्धुदेवी आसनं-स्वसिंहासनं चलितं पश्यति 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'ओहिं पउंजई' अवधिं प्रयुक्त-अवधिना ज्ञानेन पश्यति 'पउंजित्ता' प्रयुज्य 'भरहं रायं ओहिणा आभोएई' भरतं राजानम् अवधिना अवधिज्ञानेन, अभोगयति उपयुङ्क्ते जानातीत्यर्थः 'आभोइत्ता' आभोग्य उपयुज्य ज्ञात्वा तस्याः सिन्धुदेव्याः 'इमे एयारूवे अझथिए चिंतिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था' अयमेतद्रूपो वक्ष्यमाणस्वरूपः, आध्यात्मिकः आत्मगत अङ्कुर वाला अतएव ब्रह्मचारी भरत चको २॥ हाथ प्रमाण दर्भासन पर पूर्वोक मण सुवर्ण दि सबका परित्याग करके बैठ गया, और सिन्धु देवो का मनमें ध्यान करने लगा । (तरणं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि सिधूर देवीए मासणं चलइ) जब उस भरत राजा को अट्ठम भककी तपस्या पूरी होने को आई कि उसी समय सिन्धु देवी का आसन कंपायमान हुआ। (तएणं सा सिंधु देवी मासणं चलियं पासइ) सिन्धु देवीने ज्यों ही कंपित हुए अपने आसन को देखा तो (पासित्ता मोहिं पउंजइ) उसी समय उसने अपने अवधि ज्ञान को जोड़ा-अर्थात् अवधिज्ञान का प्रयोग किया (पउंजित्ता भरहं रायं ओहिणा आभोएइ) अवधिज्ञान का प्रयोग करके उसने उसके द्वारा भरत राजा को देखा (आभोइत्ता इमेएयारूवे अज्झथिएचिंतिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था)राजा को देखकरउसेआध्यात्मिक चितितकल्पितप्रार्थितमनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। संकल्प के इन विशेषणों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। इन विशेषणों का तात्पर्यार्थ ऐसा हैपोसहिप बंभयारी जाव दब्भसंथारोवगए अट्टमभत्तिए सिंधुदेविं मणसि करेमाणे चिट्टइ) ત્રણ ઉપવાસ લઈને તે પૌવધ વ્રતવાળા એથી બ્રહ્મચારી ભરતૈચક્રી અઢી હાથ પ્રમાણ દર્ભ સન ઉપર પૂવોક્ત મણિ સુવર્ણાદિ સર્વને પરિત્યાગ કરીને બેસી ગયા અને સિધુ દેવીનું भनमा ध्यान ४२१॥ काय.. (तपणं तस्ल भरहस्स रणो अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि सिंधूप देवीए आसणं चलइ) न्यारे a १२ २०जनी मम सतनी तपस्या सभात थवा भावी ते समये सिन्धु वानुमासन पायमान थयु. ( तपणं सा सिन्धु देवी आसणं चलियं पासइ) सिधुवारे न्यारे पातानुसासन ४पित यतु न्यु (पासित्ता ओहिं पउंजा) तरतrad पाताना अवधिज्ञानर न्यु टवणे पोताना भवधिशानन प्रयास ४ी. (पउंजित्ता भरहं रायं मोहिणा आभोपइ) अधिज्ञानना प्रयोग रीन ते तेना पडे भरतनन नया. (आमोइत्ता इमे एयारूवे अज्झथिए चिंतिए कप्पिए पत्थिए 'मणोगव संकप्पे समुप्पज्जित्था) २ तना मनमा आध्यात्मि, यितित, प्रावित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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