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________________ ६४८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे षटखंडाधिपति भरतस्तथैव यावत् अत्र यावत् पदात् नन्दितःप्रोतिमानाः,परमसौमस्यितः हर्षवश विसप्पंद हृदय इति ग्राह्यम् एतादृशो भरतः 'जेणेव सिंधुए देवीए भवणं तेणेव उवागच्छई' यत्रैव सिन्धुदेव्या भवनं निवासस्थानम् तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'सिंधूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते' सिन्ध्या देव्या भवनस्य अदरसामन्ते नातिदुरे नातिसमीपे यथोचितस्थाने 'दुवालसजोयणायाम णवजोयणवित्थिन्नं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ द्वादश योजनायाम,नव योजनविस्तीर्ण वरनगरसदृशं विजयस्कन्धावारनिवेशं सेनानिवेशं करोति 'जाव सिंधु देवीए आढमभत्तं पगिण्डइ' अत्र यावत्पदात् वर्द्धकिरत्नशब्दायनपौषधशाला निर्मापनादि सर्व ग्राह्यम्, तेन पौषधशालायां सिन्धुदेव्याः साधनाय भरतो राजा अष्टमभक्तं प्रगृह्णाति 'पगिण्हित्ता' प्रागृह्य पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव दब्भसंथारोवगए अट्ठमभत्तिए सिन्धुदेविं मणसि करेमाणे चिट्ठई' उवागच्छइ) बहु आनन्दित एवं संतुष्ट चित्त हुआ यहां यावत् शब्द से-नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितः हर्षवशविसर्पद्धदयः" इन पदों का संग्रह हुआ है । इन पदों की व्याख्या यथास्थान की जा चुकी है। ऐसे विशेषणों से विशिष्ट वह भरतचक्रो जहां पर सिन्धु देवी का भवन था-निवासस्थान था वहां पर आया (उवागच्छित्ता) आकर के (सिंधुए देवीए भवणस्स अदूरसामंते) उसने सिन्धुदेवी के भवन पास ही यथोचितस्थान में (दुवालसजोयणायाम णव जोयणवित्थिन्नं, वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ) अपना १२योजन लम्बा और नौ योजन चोड़ा श्रेष्ठनगर के जैसा विजयस्कन्धावार निवेश किया-सेना का पडाव डाला (जाव सिंधु देवीए अट्रमभतं पगिण्इइ) यहां यावत् पद से वर्द्धकि रत्न को बुलाना, पौषध शाला का निर्मापण आदि कार्यों के निर्माण आदि सम्बन्ध कहना इत्यादि सब कथन पूर्व में किये गये कथन के अनुसार समझ लेना चाहिये । पौषधशाला में बैठकर भरत राजाने सिन्धु देवो को अपने वश में करने के लिये तीन उपवास किये । (पगिण्हित्ता पोसहसालोए पोसहिए बंभयारी जाव दब्भसंथारोवगए अट्टमभत्तिए सिंधू देविं मणसि करेमाणे चिट्ठइ) तीन उपवास लेकर वह पौषध व्रत तेणेव उवागच्छइ) ते २० मती मान हित तमा सतुष्ट चित्तवाणी प्या. अही यावत् शथी "नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमस्यितः हर्षवशविसर्पद्धदयः" से पहन सड થયે છે. એ પદોની વ્યાખ્યા યથાસ્થાને કરવામાં આવેલ છે. એવા વિશેષણોથી વિશિષ્ટ a ari (स-हवा अवनत-नवासस्थान त त्या माव्या. (उवागच्छित्ता) त्या भावाने (सिंधूप देवीए भवणस्स अदूरसामंते) तो सिन्धुवाना सपननी पासे र यथायित स्थानमा (दुवालसजोयणायाम णवजोयणवित्थिन्न, वरणगरसरिच्छ विजयखंधावारणिवेसं करेइ) पाताना १२ या airl सन ८ रन पहाणेश्रेष्ठ नगर व विय न्यावा२ निवेश ध्या-थेट ५१ नाय. (जाव सिंधूदेवीए अठ्ठमभत्तं पगिण्हइ) अहो यावत् ५६थी १२नने मोजाव्यो, पौषधशाला निर्माण व्युत्या પૂર્વ વણિત સર્વ કથન અધ્યાહત કરી લેવું જોઈએ. પૌષધશાળામાં બેસીને ભરત રાજાએ सिन्धुवान पान ११ ४२॥ मारे ५५ र्या (पगिण्हित्ता पोसहसालाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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