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________________ प्रकाशिकाटीका ४० वक्षस्कारः सू० ११ सिन्धुदेवीसाधननिरूपणम् ६४७ नादन्यत्रापि भवनादिसम्भवेन नानुपपत्तेः, यथा प्रथमस्वर्गस्थ सौधर्मेन्द्राधग्रमहिषीणां सौधर्मादि देवलोके विमानसद्भावेपि नन्दीश्वरे कुण्डलेवा राजधान्यः, अस्या एव देव्या असंख्येयतमे द्वीपे राजधान्यः सिन्ध्वावर्तनकूटे च प्रासादावतंसक इति, एवं च सिन्धुद्वीपे देवीभवनसद्भावेऽपि सूत्रबलादत्रापि तदस्तीति ज्ञायते, तदनु भरतः किं कृतवान् इत्याह-'तएणं' इत्यादि 'तएणं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधुए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिमं दिसि सिंधु देवी भवनाभिमुखं पयातं पासइ' ततः खलु स भारती राजा तदिव्यं चक्ररत्नं सिन्ध्वा महानद्यः दाक्षिणात्येन दक्षिणेन कूलेन तीरेण पौरस्त्यां पूर्वाम् दिशं सिन्धुदेवी भवनाभिमुखं प्रयातं पश्यति 'पासित्ता' दृष्टा 'हतुट्ठ चित्त तहेव जाव' हृष्टतुष्ट चित्तानन्दितः अतिशयप्रमोदमापन्नः सन् चक्रीयहां उसका सद्भाव होना कैसे कहा ? उत्तर-महर्द्धिकदेवियों के भवन मूलस्थान से अन्यत्र भी होते है इसलिये ऐसा कथन यहां अयुक्त नहीं है। जैसे सौधर्मादि इन्द्रों की अग्रमहिषियों के विमान सौधर्मादि देवलोकों में होते हैं फिर भी नन्दीश्वर द्वीप में अथवा कुण्डल द्वीप में इनकी राजधानीयां है, अथवा इसो सिन्धुदेवी की राजधानी असंख्यातवे द्वीप में है और सिद्धावर्तन क्ट में इसका प्रासादावतंसक है। इसी तरह सिन्धु द्वीप में सिन्धु देवी के भवन का सद्भाव होने पर भी इसी सूत्र के बल से अन्यत्र भी वह है ऐसा जाना जाता है ऐसा होने पर भी "सिन्धूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते" इत्यादि वक्ष्यमाण सूत्र पाठ-"खंधावारे निवेसं करेई" यहां तक का संगत बैठ सकेगा, नहीं तो वह भी विघटित हो जावेगा। (तएणं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरस्थिमं दिसि सिंधुदेवी भवणाभिमुहे पयायं पासइ) जब भरत राजाने उस दिव्य चक्ररत्न को सिन्धु महानदी के दक्षिण तट से होते हुए पूर्वदिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर जाते हुए देखा तो वह (पासित्ता) देखकर (हट्ठ तुट्ठ चित्त तहेव जाव जेणेव सिंधूए देवीए भवणं तेणेव છે ? ઉત્તરમહદ્ધિક દેવીઓના ભવને મૂલસ્થાનથી અન્યત્ર પણ હોય છે. એથી આ કથન અહી અયુકત નથી. જેમ સૌધર્માદિ ઈન્દ્રોની અગ્રમહીષિઓના વિમાને સીધર્માદિ દેવકમાં હોય છે છતાંએ નન્દીશ્વર દ્વીપમાં અથવા કુંડળીમાં એમની રાજધાનીએ છે. અથવા એજ સિન્ધદેવીની રાજધાની અસંખ્યાતમાં દ્વીપમાં છે અને સિદ્ધાવર્તન કુટમાં આનું પ્રાસાદાવતંસક છે. એ જ રીતે સિમ્બુદ્વીપમાં સિધુ દેવીના ભવનને સદૂભાવ છે છતાં એ એજ સૂત્રના બળથી અન્યત્ર પણ તેની સંભાવના છે એવું જાણવામાં આવે છે. એવું હોય तर "सिन्धूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते" त्या पक्ष्या सूत्रा "खंधाबारे निवेसं करेह मही सुधानो सात / ५. नही तो ५ विधरित थशे. (तएणं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधूप महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिम दिसि सिंधुदेवी वणाभिमुहे पयायं पासइ). न्यारे भरत येत ०५ :રત્નને સિંધુ મહાનદીના દક્ષિણ તટ ઉપર થઈને પૂર્વ દિશામાં સિધુ દેવીના ભવન તરફ नयुताते (पसित्ता) न (हहतुहचित्त तहेव जाव जेणेव सिंधूए देवीए भवणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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