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________________ प्रकाशिका टीका तृ. वक्षस्कारः सू० १० रथवर्णनपूर्वकं भरतस्य रथारोहणम् वज्रबद्धतुम्बम्, वाचन:-श्रेष्ठहीरकैः बद्धे तुम्बे यस्य स तथा तम् 'वरक चणभूसियं वरकाञ्चनभूषितम् श्रेष्ठसुवर्णभूषितम् 'वरायरियनिम्मियं' वराचार्यः प्रधानशिल्पी तेन निर्मितः 'वरतुरगसंपउत्तं' वरतुरगसंप्रयुक्तम् वरतुरगैः श्रेष्ठाश्वः संप्रयुक्तः युक्तः स तथा तम् 'वरसारहिसुसंपग्गहियं' वरसारथिसुसंप्रगृहीतम्, वरेण-निपुणेन सारथिना सुसंप्रगृहीतः स्वायत्तिकृतो यः स तथा तम् 'वरपुरिसे' इत्यादि तु पूर्वमेव योजितम् वरपुरूषः श्रेष्ठपुरुषः सुराजा भरत उक्तं बिशिष्टं रथमारूढे इति 'दृरूढे आरूढे' इत्यत्र समानार्थक पदद्वयोपादानं षट्खंडाधिपति भरतचक्रो सुखपूर्वकम् रथमारूढ इति ज्ञापनार्थ विज्ञेयम् उक्तमेवार्थ पुनः रथविषये प्राह-'पवररयणपरिमंडियं' इत्यादि प्रवररत्नपरिम-ण्डितम् उत्तमरत्नैः परिशोभितम्-युक्तम् 'कणयखिंखिणीजालसोभियं' कनककिङ्गिणीजालशोभितम् सुवर्णनिर्मितकिङ्किणीसमूहभूषितम् 'अउज्झ' अयोध्यम्-अनभिभवनीयम् पराभवरहितं पुनश्च कीदृशम् 'सोयामणि कणगतविअपंकयजामुअणजलणजलियमुअतोंडरागं' सौदामिनोकनकतप्तपङ्कजजपाकुसुमज्वलनज्वलितशुकतुण्डरागम्, तत्र सौदामिनी विद्युत् तप्तं यत् कनकं सुवर्णम् तच्चानलोत्तीण रक्तवणं भवति पङ्कजं कमलम्, तच्च सामान्यतो रक्तं वर्ण्यते 'जामुअण' त्ति जपाकुसुम-रक्तवणेविशिष्टजपाकुसुमनामक पुष्पविशेष: 'जलणजलिय त्ति' ज्वलनज्वलितः ज्वलितज्वलनः प्रदीप्ताग्निः अत्र पदव्यत्ययः प्राकतुंब श्रेष्ठ वज्ररत्न से बद्ध थे ( वरकंचणभूतिय ) यह श्रेष्ठ सुवर्ण से मूषित था ( वरायरियनिम्मियं ) यह श्रेष्ठ शिल्पी के द्वारा बनाया गया था ( वरतुरगसं उत्तं ) श्रेष्ठ घोडे इसमें जुते थे (वरसारहिसुसंपग्गहिय) श्रेष्ठ निपुण सारथि द्वारा यह चलाया जाता था, ऐसे इन विशेषणों से विशिष्ट (वरमहारह) उस श्रेष्ट महारथ पर (वर पुरिसे) वह सुराजा छखंडके अधिपतिमरत (दुरूढे मारूढे ) बैठा यहां समानार्थक दुरुढ और आरूढ ये जो दो पद प्रयुक्त साथ २ किये गये हैं सो वे ये प्रकट करते हैं भरत चक्री उस रथ पर सुख पूर्वक बैठा (पवररयणपरिमंडियं) यह रथ उत्तम रत्नों से शोभित था (कणयखिखिणीजालसोभियं) सुवर्ण की बनी हुई छोटी-२ घटिकाओं से यह शोभित था ( अउज्झं) इसका कोई भी शत्रु पराभव नहीं कर सकता था (सोआमणिकणगतवियपंकयजासुअणजलणजलियसुअतोंडरागं) इसकी रकता सौदामिनी२त्नयी आमद्ध ता. (वरकंचणभूसिंयं) मे २५ श्रे ४ सुवथा भूषित हता. (वरायरियनिम्मिय) से शिक्षा द्वारा निमितता. (वरतरगसंपउत्तं) 20 घासी समांतर ता. (वरसारहिसुसंपग्गहियं) श्रेष्ठ निपुर सावि द्वारा ते ४ामा मापता तो. मेवाने विशेषगाथा विशिष्ट (वरमहारह) महारथ ५२ (वरपुरिसे) तेसुरा छ मधिपति भरत (दुरूढे आरूढे) सवार थय।. डी समानाथ ३० भने मा३० मे २२ पह। साथસાથે પ્રયુકત કરવામાં આવેલ છે, તેથી આમ પ્રકટ થાય છે કે ભરત ચક્રી તે ઉ૫૨ સુર मेह। (पवररयण परिमंडियं) ते २थ हत्तभरत्नाथालित हुता. (कणयखिखिणीजालसोभियं) सुवर्ण नी नानी-नानी घटियाथी ते सुशामित ता. (अउज्झं) शत्रुमाथी अरेय खता. (सोमणिकणगतवियपंकयजासुअणजलण जलिय सुअतोंडराग) मेनी २४तासीहामिनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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