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________________ ६३४ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे अमरमन:पवनजयिनः अतएव चपलं शीघ्रम् अतिशयशीघ्रं गामिनो गमनशीलाः इति चपलशीघ्रगामिनः, अमरमनःपवनजयिनश्चते चपलशीघ्रगामिनश्चेति ते तथा तैः पुनश्च कीदृशैः 'चउहिं चामरा कणेगविभूसिअंगेहिं' चतुर्भिः चतुः संख्याकैः चामरैः तथा कनकैश्च विभूषितमङ्ग येषां ते तथा तैः, अत्र चामरशब्दस्य स्त्रीत्वम् आर्षत्वात् 'तुरगेहि एतादृशविशेषणविशिष्टैः तुरगैः अश्वः युक्तं रथमिति पूर्वमेवोक्तम् अथ पुनारथं विशिनष्टि 'सच्छत्तं सच्छत्रम् छत्रेण सहितम् 'सज्झयं' सध्वजम् ध्वजैः सहितम् 'सघंट' सघण्टम् घण्टाभिः सहितम् 'सपडागं' सपताकम् पताकाभिः सहितम् 'सुकयसंधिकम्म' सुकृतसन्धिकर्माणम् सुकृतं सुष्टु निर्मितं सन्धिकर्म सन्धियोजनं यत्र स तथा तम् 'सुसमाहिय समरकणगगंभोरघोसं' सुसमाहितसमरकनकगम्भीरघोषम्, तत्र-सुसमाहितः-सुष्टु यथोचित स्थाननिवेशितो यः समरकणक:-संग्रामवाद्य विशेष: तस्य वीराणां वीररसोत्पादकत्वेन तुल्यो गम्भीरो घोषः गम्भीरात्मकध्वनिर्यस्य स तथा तम् 'वरकुप्परं' वरकूर्परम् वरे कूपरो कूर्पराकारौ पिञ्जनके इति प्रसिद्ध रथावयवौ यस्य स तथा तम् 'मुचक्कं वरनेमी मंडलं' सुचक्रम् वरनेमीमण्डलम्-प्रधानचक्रधारावृत्तम् 'वरधारातोंडं' वरधूस्तुण्डं वरे शोभमाने धृस्तुण्डे धूव्वीवरे अवयव विशेषौ यस्य स तथा तम् 'वरवइरबद्धतुंबं, तत्र-वरवेगपूर्वक इनके चलने का स्वभाव था ( चउहिं चामराकणगविभूसिअंगेहिं ) चार चामरों से एवं कनकों से इन का अंग विभूषित था, यहां चामर शब्द को जो-स्त्रीलिङ्ग में लिखा गया है वह आर्ष होने से लिखा गया है ऐसे विशेषणविशिष्ट घोड़ों से युक्त वह रथ था, तथा ( सच्छत्तं, सज्झय, सघंट, सपडाग, सुकयसंधिकम्मं, सुसमाहिय समरकणगगंभीरघोसं, वरकुप्परं) यह रथ छत्र सहित था, ध्वजा सहित था, घंटाओं से युक्त था, पताकाओंसे मंडित था, संधियों की इसमें अच्छी तरह से योजना की गई. थी जैसा घोष यथोचित स्थानविशेष में नियोजित संग्राम वाधविशेष का होता है उसी प्रकार का इसका गम्भीरघोष था. इसके कूपर दोनों अवयवविशेष-बड़े सुन्दर थे ( सुचक्कं वरनेमीमंडल ) सुन्दरचक्रधार वाले इसके सुन्दर दोनों ( वरधारातोंडं ) इसके युग के दोनों कोने बड़े सुन्दर थे ( वरवइरबद्धतुंबं ) इसके दोनों शतिथी यासवानी मनी ती. (चउहि चामराकणगविभूसिअंगेहिं) या२ यमराया તેમજ કનકેથી એમના અંગે વિભષિત હતા. અહીં “ચામર’ શબ્દને જે સ્ત્રીલિંગમાં પ્રયક્ત કરવામાં આવેલ છે, તે આર્ષ હોવાથી પ્રયુકત કરેલ છે. એવા વિશેષ વિશિષ્ટ ઘડાઓથી ते २५ युत उता. तथा (सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सपडाग सुकयसंधि कम्म सुनमाहिय समरकणग गम्भीरघोसं वरकुष्परं) २थ छत्र सहित हता, सहित sil' ઓથી યુકત હતા. પતાકાઓથી મંડિત હતા, એમાં સંધિઓની યેજના સરસરીતે કરવામાં આવી હતી. જે ઘોષ યથોચિત સ્થાન-વિશેષમાં નિયજિત સંગ્રામવાઘવિશેષને હોય છે, તે જ પ્રમાણે એને ગંભીર ઘેડ્યું હતું. એના કુ-બને અવયવ વિશેષા–અતીવ સુંદર di, (सुचक्क वरनेमीमंडल) सु४२ ययुटत अनु नेभी मज तु. (वरधारा तोंड) सना युगना मन्ने भूमि मी सुंदर ता. (वरवइरयतुंब) ना - तुम 08.100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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