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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे निर्विष्टं लब्धमिति कि करवाणीत्यादि तु प्राग्योजितमेव । 'सो देव कम्मविहिणा खंधावारणरिंदवयणेणं । आवसहभवणकलियं करेइ सव्वं मुहुत्तेणं ॥२॥ तद् वर्द्धकिरत्नम् देवकर्मविधिना देवकृत्यप्रकारेण चिन्तितमात्रकार्यकरण रूपेणेत्यर्थः स्कन्धावारं नरेन्द्रवचनेन आवासा राज्ञां गृहान् भवनानीतरेषां तैः कलितं करोति सर्व मुहूर्तेन निर्विलम्बमित्यर्थः 'करेत्ता' कृत्वा 'पवरपोसहघरं करेइ' प्रवरपौषधगृहं करोति-श्रेष्ठ पौषधशालां निर्माति 'करित्ता' कृत्वा 'जेणेव भरहे राया जाव एतमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणइ' यत्रैव भरतो राजा यावत्पदात् तत्रैवोपागच्छति एतां राज्ञां पूर्वोक्ताम् आज्ञप्तिकाम् आज्ञां क्षिप्रमेव शीघ्रमेव राज्ञे प्रत्यर्पयन्ति समर्पयन्ति 'सेसं तहेव जाव मज्जनघराओ पडिणिक्खमइ' शेषं तथैव पूर्ववदेव यावत् पदात् स राजा स्नानाथ मज्जनगृहं प्रविष्टवान् स्नपितः सन् यथा धवलमहामेघानिर्गतश्चन्द्र इव सुधाधवली कृतमज्जनगृहात् प्रतिनिष्काके अनुसार अनेक गुणों से युक्त ऐसा वह भरत चक्री का स्थपितरत्न-वर्द्धकिरत्न कि जिसे भरत चक्री ने तप एवं संयम से प्राप्त किया है कहने लगा-कहिये मैं क्या करूं-(सो देवकम्मविहिणाखंधावारणरिंदवयणेणं-आवसहभवनकलियं करेइ सव्वं मुहेत्तणं) इस प्रकार कहकर वह राजा के पास आगया और उसने चिन्तित मात्र कार्य करने की अपनी शक्ति के अनुसार नरेन्द्र के लिए प्रासाद और दूसरों के लिए भवनों को एक मुहूर्त में तयार कर दिया (करेत्ता पवर पोसहघरं करेइ) यह सब काम एक ही मुहूर्त में निष्पन्न करके फिर उसने एक सुन्दर पौषधशाला तैयार करदी-(करित्ता जेणेव भरहे राया जाव एयमाणत्तिय खिप्पामेव पच्चप्पिणइ) यथोचित रूप से पौषधशाला निष्पन्न करके फिर वह जहाँ पर भरतचक्री थे वहां गया और राजा को पूर्वोक्त आज्ञाकी पूर्ति की खवर शीघ्र ही उन्हे कर दी. (सेसं तहेव जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ) इसके बाद का शेष कथन पूर्वोक्त रूप से ही है यावत् वह स्नानगृह से बाहिर निकला यहाँ तक का यहों यावत्पदसे " स राजा स्नानाथ मज्जनगृहं प्रविष्टवान् स्नापितः सन् यथा धवलमहामेघान्निर्गतश्चन्द्र इव सुधा धवलीकृत मज्जनगृहात् प्रतिनिष्कामति" इस पाठ का ભરતચક્રીએ તપ તેમજ સંયમથી પ્રાપ્ત કરેલ તે છે–તેવર્ધકીરને કહેવા લાગે-બેલે હું શું ॐ ? (सो देवकम्मविहिणा खंधावारणरिंदवयणेणं-आवसहभवणकलियं करेइ सव्वं मुहुत्तेणं) मा प्रमाणे हीन ते २ पासे भावी गयी, अन ते पातानी शितितमात्र કાર્ય કરવાની દૈવી શક્તિ મુજબ નરેન્દ્ર માટે પ્રાસાદ અને બીજાઓ માટે ભવને એક भूत भांश निमित ४री यां(करेत्ता पवरपोसहघरं करेइ) से मधु म ४ भूह तभा नि५-न रीने पछी त मे सुह२ पौषधशा तैयार ४॥ धी. (करित्ता जेणेव भरहे राया जाव एयमाणत्तिय खिप्पामेव पच्चप्पिणइ) यथायित ३५मा पौषधशासनिपान કરીને પછી તે ક્યાં ભરતકી હતાં ત્યાં ગયે અને રાજાની પુક્તિ આજ્ઞા પૂરી કરી છે, मेवी ने सूचना मा. (सेसं तहेव जाव मज्जणघराओ पडिणिखमइ) सेना पछीनुथन પૂર્વોક્ત રૂપમાં જ છે. યાવત્ સ્નાનગૃહમાંથી બહાર નીકળે, અહીં સુધી અરો યાવત ५६थी "स राजा स्नानाथै मज्जनगृहं प्रविष्टवान् स्नपितः सन् यथा धवलमहामेधाग्निर्ग: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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