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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'लोहियक्ख रयणमयारए, लोहिताक्षरत्नमयारकम्, लोहिताक्षा रत्नमया अरका यत्र तत्तथा पुनः कीदृशम् 'जंबूणयणेमिए' जाम्बूनदनेमिकम् जाम्बूनदं रक्तसुवर्ण तन्मयो नेमिः धारा यत्र तत्तथा 'णोणामणि खुरप्पथालपरिगए' नानामणि क्षुरप्रस्थालपरिगतम्, तत्र नानामणिमयम् अन्तः क्षुरपाकारत्वात् क्षुरप्ररूपं स्थालम्-अन्तः परिधिरूपं तेन परिगतं यत्तत्तथा 'मणिमुत्ताजालभूसिए' मणिमुक्ता नालाभ्यां भूषितम्, नन्दि:-भम्भामदङ्गादि दिशविधतूर्यसमुदायस्तस्य घोषस्तेन सहितं यत्तत्तथा, पुनः कीदृशम् 'सखिं खिणीए' सकिङ्किणीकम्, किङ्किणीभि:-क्षुद्रघण्टिकाभिः सहितं सकिङ्किणीकम्, पुन: कीदृशम् 'दिवे' दिव्यम्. दिव्यमिति विशेषणस्य प्रागुक्तत्वेऽपि प्रशस्तताऽऽतिशय ख्यापनार्थ पुनः कथनम् 'तरुणरविमंडलणिभे' तरुणरविमण्डलनिभम्, तत्र तरुणरवेमण्डलसदृशम् मध्याह्नसूर्यसदृशम् तेजोयुक्तं गोलाकारं च 'णाणामणिरयणघंटियजालपरिक्खित्ते' नानामणिरत्नघण्टिकाजालपरिक्षिप्तम् तत्र नानामणिरत्नघण्टिकानां यत् जालं वह दिव्यचक्ररत्न की जिसका अरक निवेशस्थान वज़मय है आयुध गृहशाला से बाहर निकला ऐसा सम्बन्ध यहां लगा लेना चाहिये अब वह चक्ररत्न कैसा था-इमी सम्बन्ध में दिये गये पदों को व्याख्या की जाती है- (लोहियक्स्वामयारए) इसके जो अरकथे वे लोहिताक्षरत्न के बने हुए थे (जंबूणयणेमीए) इसकीनेमि-चक्र धारा-जाम्बूनद् सुवर्ण की बनी हुइ थी (णाणामणिखुरप्पथालपरिगए) यह अनेक मणियों से निर्मित अन्तः परिधिरूप स्थाल से यह युक्त था (मणिमुत्ताजालपरिभृसिए) मणि और मुक्का जालों से यह परिभूषिन था (सणंदिघोसे) द्वादश प्रकार के भम्भामृदङ्ग अदि तूर्य समूह को जैसो आवाज होती है ऐसो इम को आवाज थी (सखि त्रिणीए दिवे तरुणरत्रिमंडलणिभे, णाणामणिरयणघंटियाजालपरिकिंवत्ते क्षुद्र घटिकाओं से यह विराजित हैं। यह दिव्य अतिशय रूप में प्रशस्तथा मध्याह्न का सूर्य जिस प्रकार तेजोविशेष से युक्त रहता है उसी प्रकार के तेजोविशेष से यह युक था गोठ आकार वाला था अने. कमणियों एवं रत्न की घंटिकाओं के समूह से यह सर्व ओर से व्याप्त था (मन्चो उयसुरभिછે, આયુધશાળામાંથી બહાર નીકળ્યું. એ સંબંધ અહીં જાણી લેવે જોઈએ. હવે તે ચકરતન કેવું હતું. એ સંબંધમાં જે પદો આપવામાં આવ્યા છે તેમની વ્યાખ્યા ४२वामां आवे छे (लोहियावामयारए) सेना २ अ।। ता ते येताक्षरत्नांना ता. (जंबुणयणेमीए) अनी नभि-यधारा-४ मून सुवष्णु नी मनेली ती. (णाणामणि खुरप्प थालपरिगए) ते भने मणुिथी निर्मित सन्त: ५२धि ३५ स्थाव श्री युततु (मणिमुत्ताजालपरिभुसिए) म भने भुताnatथी से परिभूषित तु (सणंदिघोसे) ६६ પ્રકારના ભમ્મામૃદંગ વગેરે સૂર્ય–સમૂહ ને જે અવાજ હોય છે, એ એને અવાજ हता. (सखिखिणीए दिवे, तरुणरविमंडलणिमे, णाणामणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्ते) ક્ષુદ્રઘંટિકાઓથી એ વિરાજિત હતું. એ દિવ્ય અતિશયરૂપમાં પ્રશસ્ત હતું મધ્યાહ્ન નો સૂર્ય જેમ તેજેવિશેષથી સમન્વિત હોય છે. તેમજ એ ચક્રરત્ન પણ તેવિશેષથી સમન્વિત હતું. એ ગાળ આકાર વાળું હતું, અનેક મણિએ તેમજ રત્નની ઘટિકાઓના સમૂહથી मेयारे मागुमेथी व्यास हेतु, (सम्वोउयसुरभिकुसुमआसत्तमल्लदामे, अंतलिखपडिवन्ने, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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