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________________ प्रकाशिका टीका तृ• वक्षस्कारः सू० ३ भरतराज्ञः दिग्विजयादिनिरूपणम् प्रकारेण उक्तवान् , किं तदित्याह-'एवं खलु देवाणुप्पियाण आउहघरसालाए दिव्वे चक्करयणे समुप्पण्णे त एयणं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियं णिवेएमो पियं भे भवउ' एवं खलु इत्थमेव यदुच्यते मया तद् सर्वथा सत्यमेव यद्देवानुप्रियाणाम् आयुधगृहशालायां शस्त्रागारशालायां चक्ररत्न समुत्पन्न तदेतत् खलु देवानुप्रियाणां प्रियार्थतायै-प्रीत्यर्थ प्रियम् इष्टं निवेदयामः एतत् प्रियनिवेदनं प्रियम् 'भे' भवतां भवतु . ततो भरतः किं कृतवान् इत्याह-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से भरहे राया तस्स आउघरिअस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव सोमणस्सिए' ततः खलु स भरतो राजा तस्य आयुधगृहीकस्य अन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्ट यावत् सौमनस्यित,तत आयुधगृहिकस्य आयुधशालारक्षकस्य अन्तिके समीपे एतं चक्ररत्नोत्पत्तिरूपम् अर्थ श्रुत्वा निशम्य ह्रद्यवधार्य इष्ट यावत्सौमनस्यितः, अत्र यावत्पदात् पूर्ववद् बोध्यम् । तथा-'विभसियवर कमलणयणवयणे' विकसितवरकमलनयनवदनः तत्र-विकसिते वरकमलवन्नयनवदने यस्य स तथा-प्रफुएणं वद्धावेइ) उसने पूर्वोक्तानुसार भरत राजा को प्रणाम किया और आपकी जय हो आपकी विजय हो इस प्रकार जय विजय के शब्दों को उच्चारण करते हुए उसने उन्हें बधाइ दी ( वद्धावित्ता एबं वयासी ) बधाई देकर के फिर उसने ऐसा कहा( एवं खलु देवाणुप्पियाणं आउहधरसालाए दिव्वे चककरयणे समुप्पण्णे ) हे देवानुप्रिय ! आपकी आयुधशाला में आज दिव्यचक्ररत्न उत्पन्न हुआ है ( तं एअण्णं देवाणुप्पियाणं पियद्रयाए पिअं णिवेएमो ) तो हे देवानुप्रिय ! मैं आप की प्रीति के लिये आया है ( पिअं भे भवउ तएणं से भरहे राया तस्स आउहधरिअस्स अंतिए ए अमट्ट सोच्चा णिसम्म हट जाव सोमणस्सिए ) यह मेरे द्वारा निवेदित हुआ अर्थ आपको प्रिय हो इस प्रकार उस आयुधशाला के मनुष्य से सुनकर के और उसे हृदय में धारण करके वह भरत राजा हष्ट यावत् सौमतस्थित हुआ यहां पर भी यावत्पद से पूर्वोक्त पाठ गृहीत हुआ है । (वियसियवरकमलणयणवयणे पयलिअवरकडगतुडिअकेऊर मउड कंडल हारविरायंतरइवच्छे पालवपलंबमाण घोलंत भूषण धरे) उसके सुन्दर दोनो नेत्र और मुख श्रेष्ठ कमल के जैसे विकसित हो गये, चक्ररत्न की उत्पत्ति के श्रवण से जनित ઉપસ્થાન શાળા હતી (બહાર કચેહરી હતી અને તેમાં જ્યાં ભારત રાજા બેઠા હતા ત્યાં गया. (उवागच्छित्तो) त्यां न (करयल जाव जपण विजएणं बद्धावेइ) तेथे पताનુસાર ભરત રાજાને પ્રણામ કર્યા અને તમારે જય થાઓ, તમારે જય થાઓ, આ પ્રમાણે "य-विनय श यरता ad तभत वधामी मापी. (वद्धमवित्ता एवं वयासी) वधामा मापात ५छी तो यु (एवं खलु देवाणुप्पियाणं आउहघरसालाप दिव्वे चक्करयणे समुप्पण्णे) यानुप्रय ! तारी आयुधशामां मारे ६०य यन पन्नथय छ. (तं पअण्णं देवाणुप्पियाण पियट्टयाए पिअणिवेएमो) । वानुप्रिय ! तमाश पासेट अथ विनिवेदन ४२५ म.ये। छु. (पि मे भवउ तए णं से भरहे राया तस्स आउहधरोअस्स अंतिए एअमé सोच्चा णिसम्म ह९ जाव सोमणस्सिए) भा। पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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