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________________ प्रकाशिका टीका द्वि० वक्षस्कारः सू० ५५ षष्ठारकस्वरूपनिरूपणम् आकारभाव-प्रत्यवतारो (भविस्सइ) भविष्यति ?। भगवानाह (गोयमा 1) गौतम ! (काले भविस्सइ) कालो भविष्यति (हाहाभूए भंभाभूए) हाहाभूतो भम्भाभूतः (एवं सो चेव दूसमसमा वेढओ) स एव दुष्षम दुष्षमावेष्टकः अवसर्पिणी वर्णनप्रसङ्गे पूर्वमुक्तः सकलोऽपि दुष्पमदुष्षमावर्णकग्रन्थसन्दर्भो (णेयव्वो) नेतव्यः-उन्नेय । इत्थं दुष्षमदुष्षमा समां वर्णयित्वा सम्प्रति दुषमा वर्णयति 'तोसेण' इत्यादि । (समणाउसो !) हे श्रमणायुष्मन् ! (तीसेगं समाए) तस्याः दुष्षमदुष्षमायाः खलु समाया: (एकवीसाए वाससहस्से हिं) एकविंशत्या वर्षसहस्रः प्रणिते (काले वीइक्कंते) व्यतिक्रान्ते-व्यतीते सति (अणं तेहिं वण्णपज्जवेहिं) अनन्तैर्वर्णपर्यवैः (जाव) यावत्-यावत्पदेन-(अणंतेहिं रसपज्जवेहिं) इत्यादीनि पूर्वोक्तानि सकलान्यपि पदानि संग्राह्याणि, ततश्च अनन्तवर्णरसादि पर्यायाणामित्यर्थः (मणंतगुणपरिवुद्धोए) अनन्तगुणपरिवृद्धया (परिबर्तमाणे २) परिवमानः परिवर्द्धमानः सन् (एत्थ णं) अत्र खलु उत्सर्पिण्या (दूसमा णामं समा काले) दुष्षमा नाम समा कालः (पडिवज्जिस्सइ) प्रतिपत्स्यते-आगमिष्यतीति ॥सू०५५ ॥ कैसा आकार भाव प्रत्यवतार स्वरूप होगा इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा) हे गौतम ! (काळे भविस्सइ, हाहाभूए भंभाभूए एवं सोचेव दूसमदूसमा वेढओ) यह काल ऐसा होगा कि जैसा अवसर्पिणो काल के वर्णन में छठे आरे का वर्णन हाहाभूत भंभाभून आदि पदो द्वारा किया जा चुका है अतः जैसा वर्णन वहां किया गया है वैसा हो वह वर्णन इस प्रसङ्ग में यहां पर भी जानलेना चाहिये इस प्रकार से उत्सर्पिणी के प्रथम भारे रूप दुष्पम दुष्षमा का वर्णन करके अब सूत्रकार इनके द्वितीय आरे का वर्णन के प्रसङ्ग में कहते है-(तोसे णं समाए एकवीसाए वाससहस्सहिं कडे विइक्कंते) जब उत्सर्पिणो का यह दुष्पमदुष्षमा नाम का १प्रथम काल जो कि २१ हजार वर्ष का है समाप्त होजावेगा तब (अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि जाव अणंतगुणपरिवुड्ढोए परिवड्ढेमाणे एत्थणं दूसमा णाम समा काले पडिवज्जिस्सइ) तब धीरे २ काल के प्रभाव से अनन्त शुल्कादिवर्ण पर्यायों से यावत् -अनन्त रस आदि पूर्वोक्त पर्यायों से अनन्तगुण परिवर्द्धित होता हुआ दूसरा दुष्षमा नाम का आरा प्रारम्भ होगा ॥५५॥ मेट५१३५ थरी. मेना स्वासमा प्रभु -(गोयमा ! काले भविस्सइ, हाहाभूए, भभाभूए एवं सो चेव दूसमदूसमावेढओ) से मेवा थशे २। मसपिणी मना વર્ણનમાં છે. આનું વર્ણન હા હાભૂત, ભંભાભૂત વગેરે પદવડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ, છે. એથી જે પ્રમાણે ત્યાં વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. તેવું જ વર્ણન આ પ્રસંગે અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે ઉત્સર્પિણીના પ્રથમ આરા રૂપ દુષમ દુષમાનું વર્ણન કરીને व सार सेना द्वितीय माराना तन-प्रसंगमा ४ छ-(तीसेण समाए पक्कवीसाए घाससहस्सेहिं काले विइक्कते) यारे साना साहुपम पम नमन। १ प्रथम २ २ १२ १२८ छे. समास यश त्यारे (अणतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव अणंतगुणपरिखुड्डीए परिवडूढेमाणे पत्थणं दूसमाणामं समा काले पडिवजिजस्सइ) त्यारे धीमें ધીમે કાળના પ્રભાવથી અનંત શુક્લાદિ વર્ણ પર્યાયોથી યાવત-અનંત રસ આદિ પૂક્તિ પયાથી અનંત ગુણ પરિવતિ, તે બીજે દુષમા નામક આરાને પ્રારંભ થશે. પપ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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