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________________ जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे आरूढानि कुर्वन्ति 'आरुहित्ता' आरोप्य आरूढीकृत्य 'चिइगाए' चितिकायां चितायां 'ठवेंति' स्थापयन्ति-निवेशयन्ति ॥सू० ४९॥ अथ चितायां भगवदादिकलेवरस्थापनानन्तरं शक्रादिकृतिमाह मूलम्-तएणं से सक्के देविंदे देवराया अग्गिकुमारे देवे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अगणिकायं विउवह विउवित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तएणं ते अग्गिकुमारा देवो विमणा निरानंदा अंसुपुण्ण णयणा तित्थयरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए य अगणिकायं विउव्वंति तएणं से देविंदे देवरायो वाउकुमारे देवे सदावेइ सदावित्तो एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थयरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए य वाउक्कायं विउव्वह विउवित्ता अगणिकायं उज्जालेह तित्थयरसरीरगं गणहरसरीरगाइं अणगारसरीरगाइं च झामेह तएणं ते वाउकुमारा देवा विमणा णिराणंदा अंसुपुण्णणयणा तित्थयरचिइगाए जाव विउव्वंति अग णिकायं उज्जालैंति तित्थयरसरीरगं जाव अणगारसरीरगाणि य झामे ति के कि जिन्होंने जन्म जरा और मरण को सर्वथा विनष्ट कर दिया है शरीरों को शिबका में आरोपित किया, और "आरुहित्ता" आरोपित करके फिर उन्होंने “चिइगाए ठवेंति" उन शरीरों को चिता में रख दिया, ईहामृग-नाम वृक का है, वृषभ नाम बलीवर्द का है, तुरग नाम घोड़ेका हैं नर नाम मनुष्य का है, मकर नाम ग्राह का है, विहग नाम पक्षी का है, यालक नाम सर्पका है. किन्नर व्यन्तरजाति के देवविशेषों का नाम है, रुरु नाम मृग का हैं, शरभ नाम अष्टापद का है, चमर नाम चमरी गाय का है, कुञ्जर नाम हाथी का है. जंगल की लताओं का नाम वनलता है ॥४९॥ દેથી માંડી ને વૈમાનિક સુધીના દેવોએ કે જેમણે જન્મ જશે અને મરણ ને સર્વથા વિનષ્ટ કરી દીધા છે એવા ગણધર અને અનગારના શરીરને શિબિકામાં આરોપિત કર્યા भने 'आरुहिता' मारे,पित ४रीने पछी तेभो 'चिइगाए ठवेति' शरीराने यित। ५२ મૂકી દીધાં, ઈહામૃગ, વૃકનું નામ છે વૃષભ, બલીવઈનું નામ છે. તુરગ, નામ ઘોડાનું छ. न२, मनुष्यनु नाम छे. म४२, श्राइनु नाम छे. विस, पक्षीनु नाम छे. व्यास, સર્ષનું નામ છે. કિન્નર, વ્યન્તર જાતિના દેવ વિશેષનું નામ છે. ૩૩, મૃગનું નામ છે. શભ, અષ્ટાપદનું નામ છે, ચમાર, ચમરી ગાયનું નામ છે. કુંજર, હાથીનું નામ છે. વનલતા, જંગલી લતાએ નું નામ છે. એ સૂત્ર ૪૯ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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