SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका-द्वि. वक्षस्कार सू.४९ भगवदादिकलेवरस्नपनादिकनिरूपणम् ४२३ तवर्ण 'पडसाडयं' पटशाटकं-शाटकवस्त्रं 'णियंसेइ' निवासयति-परिधापयति 'णियंसित्ता' निवास्य-परिधाय 'सव्वालंकारविभूसिय' सर्वाभरणसमलडकृतं 'करेइ' करोति 'तएणं' ततः-तदनन्तरं भगवच्छरीरस्य शक्रकर्तृक सर्वालङ्कारविभूषितीकरणानन्तरम् खलु 'ते' ते 'भवणवइ जाव वेमाणिया' भवनपति यावद् वैमानिकाः भवनपति वाणमंतर ज्यौतिष्क वैमानिका देवा 'गणहरसरीरंगाई' गणधर शरीरकाणि गणधरकलेवराणि 'अणगार सरीरगाई' अनगारशरीरकाणि अनगाराः साधवस्तच्छरीरकाणि तत्कलेवराणि 'खीरोदगेणं' क्षीरोदकेन-क्षीरसागरानीतजलेन 'पहावेंति' स्नपयन्ति 'पहावित्ता' स्नपयित्वा 'सरसेणं' सरसेन सुगन्धिना 'गोसीसचंदणेणं' गोशीर्षचन्दनेन 'अनुलिपति' अनुलिम्पन्ति 'अनुलिपित्ता' अनुलिप्य 'अहयाई' अहतानि-अखण्डितानि 'दिव्वाई' दिव्यानि-स्वर्गीयाणि उत्तमानि 'देवदूसजूयलाई' देवदृष्ययुगलानि देवपरिधेयवस्त्रद्वयानि, इह बहुवचनं प्रत्येकाणि गणधरानगारशरीराण्यपेक्ष्य 'णियंसति' निवासयन्ति परिधापयन्ति 'णियंसित्ता' निवास्य परिधाप्य 'सव्वालंकारविभूसियाई' सर्वालङ्कारविभूषितानि सर्वाभरणालङ्कृतानि 'करें ति' कुर्वन्ति तए णं' ततः तदनन्तरं खलु गणधरानगारशरीराणां भवनपत्यादिकर्तृचन्दन से अनुलिप्त किया "अणुलिंपित्ता" अनुलिप्त करने के बाद फिर "हस लक्खणं पडसाडयं णियंसेइ” उसे हँस के जैसे श्वेतवर्णवाले शाटक वस्त्र से सुसज्जित किया, "णियंसित्ता" मुसज्जित करने के बाद फिर उसे “सव्वालंकारविभूसियं करेइ" समस्त अलंकारों से विभूषित किया, भगवान् के शरीर के विभूषित किये जाने के बाद "तए णं से भवणवइ जाव वेमाणिया गणहर सरीरगाइं अणगार सरोरगाइंपि खोदोदगेणं व्हावेंति पहावित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपित्ता अहयाई दिव्वाइं देवदूसजुयलाई णियंसंति णियंसित्ता सव्वालंकारविभूसियाई करेंति" भवनपति से लेकर वैमानिक तक के देवों ने गणधर के शरीरों को और अनगार के शरीरों को भी क्षीरोदक से स्नानयुक्त किया. स्नानयुक्त करके फिर सरस गोशीर्षक नामक श्रेष्ठचन्दन से अनुलिप्त किया, अनुलिप्त करके अहत दिव्य देवदूष्ययुगल उन शरीरों पर धरे-पहिराये, देवदूष्य युगलों के पहिराने के बाद फिर उन्होंने उन शरीरों का समस्त प्रकार के अलंकारों से न ५ या 'अणुलिंपित्ता' यहनना बेपशन तन हंसलवखणंपडसाडयं णियंसेइ' હસના જેવા સફેત વર્ણવાળ વસ્ત્રથી સુસજજત કર્યું ‘foથસિં' સુસજજીત કરીને तेने 'सव्वालंकारविभूसियं करेह' से म शथी शीलायमान ४यु भगवानना शरीरने विभूषित यो पछी 'तरण से भवणवइ जाव वेमाणिया गणहरसरीरगाई अणमार सरीरगाई खीरोदगेण पहावेति पहावित्ता सरसेण गोसीसचदणेणं अणुलिंपित्ता अहयाई दिव्बाई देवदूसजुयलाई णियसंति णियंसित्ता सव्वालंकारविभूसियाई करें ति' ५छी लपन પતિથી આરંભીને વૈમાનિક પર્યત ના દેવોએ ગણઘરના શરીરને અને અનગરના શારીરને પણ ક્ષીરદક્ષી સ્નાન કરાવ્યું તે સર્વને સ્નાન કરાવીને પછી સરલ ગશીર્ષ નામનાઉત્તમ ચંદનથી લેપક લેપ કરીને દેવદૂષ્ય યુગલ તે શરીર પર પહેરાવ્યા. દેવાધ્ય યુગલ વસ્ત્રો ધારણ કરાવ્યા પછી તેઓએ એ શરીરને સઘળા પ્રકારના અલંકારોથી Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy