SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे टीका-'जं समयं च' इत्यादि । मूले 'जं समयं' 'तं समयं' इत्युभयत्र प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, ततश्च 'जं समयं च णं उसमे अरहा-कोसलिए कालगए वीइकते समुज्जाए छिण्ण जाइजरामरणबंधणे-सिद्धे बुद्धे' यस्मिन् समये च खलु ऋषभोऽहन् कौशलिकः कालगतो व्युत्क्रान्तः समुद्यातः छिन्नजातिजरामरणबन्धनः सिद्धो बुद्धो 'जाव' यावत्, यावत्पदेन-'मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृत्तः' इति पदत्रयं संग्राह्यम्, तथा 'सव्व दुक्खप्पहोणे' सर्वदुःखपहीणः, 'कालगतादिसर्वदुःख प्रहोणान्तशब्दानां व्याख्याऽत्रैव चतुश्चत्वारिंशत्तमे सूत्रेऽवलोकनीया, 'तं समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणे चलिए' तस्मिन् समये च खलु शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य आसनं चलितं= कम्पितम् । 'तए णं-से सक्के देविंदे देवराया आसणं चलियं पासइ' ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः आसनं चलितं पश्यति अवलोकयति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'ओहि' अवधिम् अवधिज्ञानं 'पउंजइ' प्रयुनक्ति व्यापृणाति, 'पउंजित्ता' प्रयुज्य अवधिज्ञानं व्यापृत्य 'भयवं तित्थयरं ओहिणा' भगवन्तं तीर्थकरम् अवधिना=अवधिज्ञानेन 'आभोएई आभोगयति-पश्यति, 'आभोइत्ता' आभोग्य-दृष्ट्वा ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणं वचनम् 'वयासी' अवादीत्-उक्तवान् ‘परिणिव्वुए' परिनिवृतः-कर्मकृतसकलसन्तापरहितत्वात् समन्ताच्छीतलीभूतः 'खलु जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे उसहे अरहा कोसलिए' खलु जम्बूद्वीपे जरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे" वे कौशलिक ऋषभ अहंत जिस समय मुक्ति में गये अर्थात् कालगत आदि सर्व दुःख प्रहोणान्त तक के विशेषणों से जब वे युक्त हो चुके "तं समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणे चलिए" उस समय देवेन्द्र देवराज शक्र का आसन कम्पायमान हुआ, “तएणं से सक्के देविदे देवराया आसणं चलियं पासइ" शक्रने जब कम्मित होते हुए अपने आसन को देखा तो उसी समय उसने अपने अवधिज्ञान को व्यापारित किया "पासित्ता" व्यापारित कर "ओहिं पउंजइ पउंजित्ता भयवं तित्थयरं आभोएई" उसने उस अवधिज्ञान से तीर्थकर प्रभु को देखा, "आभोइत्ता" देखकर फिर वह "एवं वयासी" इस प्रकार कहने लगा ‘परिणिवुए खलु जंबूद्दीवेदोवे भरहे वासे उसहे अरहा कोसलिए" जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित भरतक्षेत्र में कोशलिक ऋषभ अर्हत परिनिर्वृत हुए हैं-कर्मकृत सकल जाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुःखप्पहोणे' ते शति *षम महतसमये મુક્તિમાં પધાર્યા–એટલે કે કાલગત વગેરે સર્વદુઃખ પ્રહાન્ત સુધીના વિશેષણેથી જ્યારે तेसोश्री युत य यूश्या त समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरणो आसणे चलिए' ते समये हेवेन्द्र देवस०४ शनुमासन पायभान थयु 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया आसणं चलियं पासई' श यारे यातनासनने पायमानयतुं यु त्यारे तर क्षणे तो पाताना अवधि ज्ञानने व्यापारित यु 'पासित्ता' व्यापारित शन 'ओहिं पांजइ पउंजित्ता' भयवं तित्थयरं आभोपइ' तेत अवधि ज्ञानथी तीथ ४२ प्रसुननेया. 'आभोइत्ता' तय ४२ प्रभुने नछन ते 'एवं वयासी' 1 प्रमाणे उपाय। 'परिणिव्वुए खलु जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे उसहे अरहा कोसलिए' दीपनामना द्वीपमा सरतक्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy