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________________ प्रकाशिकाठीका द्वि०वक्षस्कार सू.४४ भगवतो जन्मकल्याणकादिवर्णनम् अनगाराः स कालः पर्यायान्तकर भूमिरिति । अथ युगान्तकरभूमि पर्यायान्तकरभूम्योः प्रमाणप्ररूपणा याह-- 'जुगंतकर भूमी' युगान्तकर भूमि हि 'असंखेज्जाई पुरिसजुगाई' असं - ख्येयानि पुरुषयुगानि 'जाव' यावत्-असंख्येयपुरुषपरम्परापरिमिताऽभवत् । तथा 'परिया अंतरभूमी' पर्यायान्तकर भूमिरेषाऽभवत् यत् भगवत ऋषभस्य 'अंतोमुहुत्तपरियाए ' अन्तमुहूर्त्त पर्याये= केवलिज्ञानस्य अन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणे पर्याये व्यतीते सति 'अंतमकासी' अन्तम् = भवान्तम् अकार्षीत् = अकरोत् मुक्तिं गतो न तु ततः प्राक् कश्विज्जीवः । भगवतोऽन्तर्मुहूर्त्त - प्रमाणे केवलिये सति तन्माता मरुदेवी मुक्तिं गतेति बोध्यम् ।। सू० ४३ || यस्मिन् यस्मिन्नक्षत्रे जन्मादि कल्याणकानि भगवतो जातानि तन्नक्षत्रप्रदर्शन पुरस्सरं भगवतो जन्मकल्याणकादीन्याह- मूलम् —उसभेणं अरहा पंच उत्तरासाढे अभीइछट्ठे होत्था, तं जहाउत्तरासादाहिं चुए चइत्ता गव्भं वक्कते, उत्तरासादाहिं जाए उत्तरासादाहिं राया भिसेयं पत्ते उत्तरासादाहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, उत्तरासादाहिं अनंते जाव समुप्पण्णे, अभीइणा परिणिव्वुए ॥ सू० ४४ ॥ ३९७ छाया - ऋषभः खलु अर्हन् पञ्चोत्तराषाढ: अभिजित्षष्ठोऽभवत् तद्यथा-उत्तराषाढालु च्युतश्च्युत्वा गर्भ व्युत्क्रान्तः, उत्तराषाढासु जातः उत्तरागढासु राज्याभिषेकं प्राप्तः उत्तराषाढासु मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रब्रजितः, उत्तराषाढासु अनन्त यावत् मोक्ष में जाने के लिए अनगार प्रवृत्त हुए वह काल पर्यायान्त कर भूमि है, "जुगंतकरभूमी जाव असंखेज्जाई पुरिसजुगाई" इनमें जो युगान्तकर भूमि है वह असंख्यात पुरुषपरम्पराप्रमित होता है. तथा “परियायं तकरभूमि अंतो मुहुत्तपरियार अंतमकासी" पर्यायान्तकर भूमि ऐसी है कि भगवान् ऋषभ के केवली होने की पर्याय का अन्मर्मुहूर्तप्रमाण समय व्यतीत होने पर जिस जीव ने अपने भवका अन्त कर दिया होता है. मोक्ष में वह जीव पहुंच जाता है - इसके पहिले कोई जोव मोक्ष प्राप्त नहीं करता है. ऐसा वह समय पर्यायान्तकर भूमि रूप कहा गया है, ऋषभनाथ की केवलिपर्याय जब एक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल व्यतीत हो चुकी थी उस समय में उनकी माता मरुदेवा मुक्ति चली गई थीं ॥ ४३ ॥ ચૂકયા તે સમયમાં જેટલા મેાક્ષમાં જનારા અનગારે પ્રવૃત્ત થયા, તે કાલ પર્યાયાન્તકર भूमि छे. “जुगंतकरभूमो जाव असंखेज्जाई पुरिसजुगाई” खेमनामों के युगान्तर भूमि छे ते असंख्यात पुरुष परंपरा प्रमित होय छे तथा "परियायत करभूमी अतो मुहुत्तपरियाप अतमकासी” पर्यायान्तर भूमि सेवी छे है लगवान ऋषभ देवणी थवानी पर्यायना અન્તમુહૂર્ત પ્રમાણ સમય વ્યતીત થઈ જવા ખાદ્ય જે જીવે પેાતાના ભવના અન્ત કરી દીધા છે, તે જીવ મેક્ષમાં પહોંચી જાય્ છે. એના પહેલાં કેઈ જીવ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરતા નથી. એવા તે સમય પર્યાયાન્તકર ભૂમિ રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. ઋષભનાથના કેવલ પર્યાય જયારે એક અન્તસુ હતં પ્રમાણુ કાળ વ્યતીત થઈ ચુકયા હતા, તે સમયે તેમની માતા મરુ દેવા મુકિત પ્રાપ્ત કરી ચૂકી હતી. ૫૪૩મા Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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