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________________ २४ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे भेणं' मध्ये-मध्यभागे विष्कम्भेण अष्टयोजनानि 'उवरिं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, उपरि ऊर्वभागे विष्कम्भेण चत्वारि योजनानि । अतएवाह-'मूले वित्थिन्ना मूले विस्तीर्णाद्वावशयोजनविष्कम्भसम्पन्नत्वात्, 'मज्झे संखित्ता, मध्ये-संक्षिप्ता-मूलापेक्षयाऽल्पप्रमाणा अष्टयोजनप्रमाणविष्कम्भसम्पन्नत्वात् , उवरि 'तणुया' उपरि-उप्रभागे तनुका -मूलमध्यापेक्षया इस्वा चतुर्योजनप्रमाणविष्कम्भसम्पन्नत्वात्, अतएव" 'गोपुच्छ संठाणसंठिया' गोपुच्छ संस्थानसंस्थिता गोपुच्छम् ऊर्वीकृत गोपुच्छ क्रमशः बहुमध्यमाल्पप्रमाणं भवति तद्वत् यत् संस्थानम्-आकारः तेन संस्थिता, 'सबवइरामई' सर्ववज्रमयी-सर्वात्मना-सामस्त्येन वज्ररत्नमयी सा कीदृशीति वर्ण्यते-"अच्छे" त्यादि, 'अच्छा' अच्छा-आकाश स्फटिकवत् स्वच्छा 'सण्हा' श्लक्ष्णा-लक्ष्ण पुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णसूत्रनिष्पन्न पटवत्, पुनः 'लण्हा' श्लक्ष्ण-चिक्कणा धुण्टितपटवत्, 'घट्टा' घृष्टाधृष्टेऽवघृष्टा खरशाण निधृष्टपाषाणखण्डवत् 'मट्ठा' मृष्टा-मृष्टेव मृष्टा-कोमलशाणघृष्टपाषाणखण्डवत्, ‘णीरया' नीरजा:-स्वाभाविकरजोवर्जिता, 'निम्मला' निर्मलायोजन की विस्तार वाली है "उवरिं चत्तारि जोयणाई विक्खभेणं" ऊपर में यह चार योजन की विस्तार वाली है इस तरह यह मूल में विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त है और ऊपर में पतली हो गई है अत एव इस जगती का आकार ‘गोपुच्छ के आकार जैसा हो गया है यह जगती "सव्ववरामई अच्छा, सण्हा, लण्हा घट्ठा, मट्ठा, णीरया, नीम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, समरीइया, सउज्जोया, पासाईया दरिसणिज्जा, अभिरूवा पडिरूवा" सर्वात्मना वज्ररत्न की बनी हुई है, तथा यह आकाश और स्फटिक मणि के जैसी अतिस्वच्छ है, लक्ष्ण सूत्र से निर्मित पट कि तरह यह श्लक्ष्णपुद्गल स्कन्ध से निर्मित हुई है. अत एव यह सब से श्रेष्ट है तथा घुटे हुए बस्त्र की तरह यह चिकनी है, खरशाण से घिसे गये पाषाण की तरह यह घृष्ट है, कोमल शाण से घिसे गये पाषाणखण्ड को तरह यह मृष्ट है स्वाभादिक रज से रहित होने से यह नीजर है आगन्तुक मैल से रहित होने से यह निर्मल है, कर्दमरहित होने से यह निष्पङ्क है , आवरण ચાર યોજન જેટલી વિસ્તારયુક્ત છે આ પ્રમાણે આ મૂલમાં વિસ્તીર્ણ છે, મધ્યમાં સંક્ષિપ્ત छ, भने ०५२मां पाती थ/ गई छ. मेथी मागताना मा.२ "गोपुच्छसंठाणसंठिया" गोपुछन५४२ । २७ गये। छे. ती "सव्व वईरोमई अच्छा सण्हा, लण्हा, घट्टा, मट्ठा, नीरया, निम्माला, जिप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पभा समरीइया, सउज्जोया, पासाईया दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा," सर्वात्मना 400 रत्ननी मनी છે, તેમજ આ આકાશ અને સ્ફટિકમાણિ જેવી અતિ સ્વચ્છ છે, લફરું સૂત્ર નિર્મિત પટની જેમ આ લક્ષણ પુગલ સ્કલ્પથી નિર્મિત થયેલી છે એથી આ લષ્ટ-શ્રેષ્ઠ–છે તેમજ ઘૂંટેલ વસ્ત્રની જેમ આ સુચિવણ છે. ધાર કાઢવાના પથ્થરથી ઘસેલા પાષાણની જેમ આ વૃષ્ટ છે. કોમળ શાણથી ઘસેલા પાષાણ ખંડની જેમ આ મૃષ્ટ છે. સ્વાભાવિક રજથી રહિત હેવા બદલ આ નીરજ છે. આગંતુક મેવથી રહિત હોવા બદલ આ નિમેળ છે. કમ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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