SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -३५४ । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे यमानरेणुयुक्त 'करेमाणे' कुर्वन् 'जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे' यत्रैव सिद्धार्थवनं उद्यानं, 'जेणेव' यत्रैव 'असोगवरपायवे' अशोकवरपादपः 'तेणेव उवागच्छइ', तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'असोगवरपायवस्स' अशोक वरपादपस्य, 'अहे' अधः अधोभागे 'सीयं ठावेइ' शिबिकां स्थापयति, 'ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ' स्थापयित्वा शिविकातः प्रत्यवरोहति-अवतरति 'पच्चौरुहित्ता' प्रत्यवरुह्य 'सयमेवाभरणालंकारं' स्वयमेव आभरणालङ्कारम्-आभरणानि च अलङ्काराश्चेति समाहारस्तत्, 'ओमुयइ' अवमुश्चतिपरित्यजति, 'ओमुइत्ता' अवमुच्य-धरित्यज्य 'सयमेव' स्वयमेव 'अट्ठाहिं' आस्थाभिः श्रद्धान्वितोभूत्वा 'चउहिं' चतसृभिः 'मुट्ठिहिं' मुष्टिभिः करणभूताभिः लोयं' लोच केशापनयनं 'करेइ करोति । अन्यतीर्थकराणां साधूनां पञ्चभिर्मुष्टिर्मिलोच इति यदुक्तं, तत्रेयं वृद्धपरम्परा-भगवानृषभ स्वामी प्रथममेकया मुष्टया श्मश्रुकूर्चयोर्लोचमकरोत् । ततस्तिसमूह के साथ २ घिरे हुए होकर जा रहे थे “मंदं मंदं उद्धतरेणुय करेमाणे करेमाणे जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ" उस मार्ग पर उस समय हय और गज समुदाय के पैरों के आघात से एवं पैदल चलने वाले सैन्य समूह के पदों के आघात से जमीन में जमी हुई धूलि धीरे २ से निकलकर मन्द मन्द रूप में उड़ती हुई नजर आती थी सिद्धार्थवनोद्यान के आते ही और उसमें भी जहां अशोक नाम का वर पादप था "आगच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ" वहां पहुंचते ही उसके नीचे प्रभु की पालकी खड़ी हो गई "ठावित्ता सौयाओ पच्चोरुहइ" पालखी नीचे रखते ही प्रभु उस शिबिका से बाहर आगये, "पच्चोरुहित्ता सयमेवाभरणा लंकार मोमुयई" बाहर आते ही प्रभु ने पहिरे हुए आभरणों को एवं अलंकारों को अपने शरीर ऊपर से उतार दिया, “ओमुइत्ता सयमेव चउहिं अट्टाहिं लोयं करेइ" उतार कर उन्होंने श्रद्धायुक्त होकर चार मुष्टियों से केशों का लुञ्चन किया, अन्य तीर्थंकरो ने साधु अवस्था धारण करने पर पांच मुष्टियों से लोच किया है ऐसा जो कहा है सो इस सम्बन्ध में वृद्धपरंपरा ऐसी है कि भगवान् ऋषभ स्वामी ने प्रथम एक मुष्टि से मछ और दाढो के बालों शसभा ५२ व्याख्या ते मते 'मंद मंद उद्धतरेणुयं करेमाणे करेमाणे जेणेव सिखत्थवणे उज्जोणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ' &य, 7 अने पायन यातया તે માર્ગની જલ વડે સિક્ત થયેલી ભૂમિની ધૂલિ ધીરે ધીરે-મન્દ મન્દ રૂપમાં ઉડવા લાગી આ રીતે સિદ્ધાર્થવદ્યાન અને તેમાં પણ જ્યાં અશોક નામક વર પાદપડતુ ત્યાં તેઓ माल्या. त्यां 'आगच्छित्ता असोयवरपायवस्स अहे सीयं ठवेइ' पडindi नी नीये प्रभुनी शिम अभी २४ी. 'ठावित्ता सीयाओ पच्चीरुहइ' शिमनीय भूतir प्रभु तेमांथी बार साव्य.. 'पच्चोरुहित्ता सयमेवाभरणालंकारं ओमुयई' महार मातin प्रय परे मातभरी भरीने पोताना शरी२ ५२था तार्या अन् 'ओमहत्ता सयमेव चउहिं अट्ठाहिं लोयं करेइ' त्यार माह तभणे श्रद्धा पूर्व यार मुष्टिया पस લંચન કર્યું, બીજા તીર્થકરો એ સાધુ-અવસ્થા ધારણ કર્યા બાદ પાંચ મુષ્ટિએ વડે કેશનું લંચન કર્યું હતું, એવું જે કહેવામાં આવ્યું છે, તે આ સંબંધમાં વૃદ્ધ પરંપરા એવી Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy