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________________ २४६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तदेवंविधमङ्ग-शरीरं येषां ते तथा, तथा 'वज्जरिसदनारायसंघयणा' वज्रऋषभनाराच संहननाः वज्रऋषभनाराचानि वजऋषभनाराचनामकानि संहननानि-शरीरसंघटन प्रकारा येषां ते तथा । 'तथा-समचउरंससंठाणसंठिया' समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिताः-समचतुरस्र संस्थानम् आकृति विशेषो येषां ते तथा । , तथा 'छविणिरातंका' छविनिरातङ्काः छव्यां =त्वचि निरातङ्काः रोगरहिता-दद्रुकुष्ठादि चर्मरोग रहिता इत्यर्थः । तथा 'अणुलोमवायुवेगा' अनुलोमवायुवेगाः अनुलोमः अनुकूलो वायुवेगः-शरीरान्तर्वर्ती वातप्रचारो येषां ते तथा । कंकगहणी' कंकग्रहण्यः कस्येव पक्षिविशेषस्व नीरोगवर्चस्कतया ग्रहणी-गु दाशयो येषां ते तथा तथा 'कबोयपरिणामा' कपोतपरिणामाः-कपोतस्येव परिणाम:आहारपरिणामो येषां ते तथा कपोतस्य प्रस्तरलवोऽपि भुक्तो जीर्यते तथैव तेषामपि भुक्तं दुर्जरभोजनम् अनायासेन जीर्यते इति भावः । अनेन तेषामजीर्णतादिदोषराहित्यं सूचिवाले होते है अच्छे स्वर और निर्घोष अनुनाद वाले होते है, प्रभा से जिनके शारीरिक अवयव प्रकाशित होते रहते है ऐसे होते हैं वज्रऋषभनाराच संहननवाले होते है समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं, चमड़ी में इनकी किसी भी प्रकार का आतंक रोग नही होता है, दद् कुष्ट आदि चर्मरोग से ये रहित होते हैं 'अणुलोमवा उवेगा, कंकगहणी, कवोयपरिणोंमा, सउणिपोसपिटुंतरोरुपरिणया छडणुसहस्समूसिआ" शरीरान्तर्वतॊ वायु का वेग इनके सदा अनुकूल रहता हैं इनका गुदाशयकंकपक्षी के गुदाशय की तरह नोरोगवचर्ववाला होता हैं अर्थात् इनका गुदाशय टट्टी से लिप्त नहीं होता है कपोत का जैसा आहार परिणाम होता है उसी तरहका इनका आहार परिणाम होता हैं अर्थात् जैसे कबूतर कंकड वा जावे तो वह भी जीर्ण हो जाता है पच जाता है उसी तरह से इन्हें भी दुर्जर भोजन पच जाता है ऐसा इनका आहार परिणाम होता है इस कथन से ये अजीर्णता आदि दोष से रहित होते हैं यह बतलाया गया हैं इनकी गुदा का जो बा. ह्यभाग होता है वह पक्षी की गुदा के बाह्य भाग को तरह मल के लेप से रहित रहता है पोसઅનુનાદ જેવા અનુનાદવાળા એથી શેભન સ્વરવાળા હોય છે. સારા સ્વર અનેનિષ– અનુન દવાળા હોય છે. પ્રભાથી જેમના શારીરિક અવયવે પ્રકાશિત થતા રહે છે, એવા હોય છે. વજા ભનારાય સંહનનવાળા હોય છે. સમચતુરન્સ સંસ્થાનવાળા હોય છે. એમની ચામડીમાં કોઈ પણ જાતની વિકૃતિ થતી નથી દદ્ર કુષ્ઠ વગેરે ચર્મરોગથી એઓ વિહીન હોય छ, “अणुलोम वाउवेगा, कंकग्गहणी, कपोयपरिणामा सणिपोसपिटूठंतरोरुपरिणया, छद्धणुसहस्सभूसिआ' अमना शरीरान्त'ती' वायुन। वास अनुदूत २ छे. समनु ગુદાશય કંકપક્ષી ના ગુદાશયની જેમ નીરોગ વર્ચરવાળું હોય છે, એટલેકે એમનું ગુદાશય જાજરુથી લિપ્ત હેતું નથી. કપોતને જે જાતને આહાર-પરિણામ હોય છે તે જાતને એમને આહાર પરિણામ હોય છે એટલે કે કપત કાંકરાએ ખાય છે તે પણ જીર્ણ થઈ જાય છે પચી જાય છે, તેવી જ રીતે એમને પણ દુજ૨ ભજન પણ પચી જાય છે. એ એમનો આહાર પરિણામ હોય છે. આ કથનથી સ્પષ્ટ થાય છે કે એ સર્વે અજીર્ણતા વગેરે દેથી રહિત Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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