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________________ प्रकाशिका टीका द्वि०वक्षस्कार सू. २४ सुषमसुषमाभाविमनुष्यस्वरूपनिरूपणम् २४५ दीयादीनामा पूर्ववबोध्या इति सम्प्रति तत्कालोत्पन्न स्त्रीपुंसां साधारणतया वर्णनमाह 'तेणं मणुया' इत्यादि । ते भरतवर्षे सुषमसुषमाकालभाविनः खलु मनुनाः, मनुनाश्च मनुज्यश्चेति मनुजाः-पुरुषाः स्त्रियश्च 'ओहस्सरा' ओघस्वराः-ओपेन प्रवाहेण स्वरो येषां तेतथा-मेघवद् गम्भीरस्वरा इत्यर्थः । 'हंसस्सरा:-हंसस्येव मधुरो स्वरो येषां ते तथा । 'कोचस्सरा' क्रोश्चस्वराः-क्रोञ्चस्येव-क्रोचपक्षिण इव अनायासनिर्गतोऽपि दूरदेशव्यापी स्वरो येषां ते तथा । 'णंदिस्सरा' नन्दीस्वराः-नन्दी:-द्वादशविधतूर्य समुदयस्तस्याः स्वर इव स्वरो येषां ते तथा' तथा 'णंदिघोसा' नन्दीघोषाः-नन्याः पूर्वोक्तरूपायाः घोष इवअनुनाद इव घोषः-अनुनादो येषां ते तथा । 'सीहस्सरा' सिंह स्वरा:-सिंहस्येव बलिष्ठः स्वरो येषां ते तथा । 'सीहघोसा' सिंहघोषा:-सिंहस्य घोष इव अनुवाद इव घोषो येषां ते तथा, अतएव 'मुस्सरा' सुस्वरा:-प्रशस्तस्वरयुक्ताः 'सुस्सरणिग्योसा' सुस्वरनिर्घोषा-सु ष्ठु-शोभनः स्वरनिर्घोषः-स्वरानुनादो येषां ते तथा, तथा 'छायायवोज्जो विअंगमंगा' छायोद्योतिताङ्गाङ्गाः-छायया-प्रभया उद्दयोतितानि-प्रकाशितानि अङ्गानि अवयवा यस्य 'भरहवास माणुसच्छरामो', भरतक्षेत्र की ये मानुषीरूप में अप्सराएँ ही है “अच्छेरगपेच्छणिज्जा भी पासाईयामओ जाव पडिरूवाओ' मनुष्यलोक के ये आश्चर्यरूप है ऐसा समझ कर ये जनों द्वारा प्रेक्षणीय है प्रासादीय आदि-इन चार पदों की व्याख्या जैसी पूर्व में की जा चुकि हैं वैसी ही है "तेणं मणुया ओहस्सरा, हंसस्सरा, कोचस्सरा, णंदिस्सरा गंदिघोसा सीहस्सरा" वे उस काल के मनुष्य और स्त्रियां ओघस्वर वाले मेधके जैसे गंभीर स्वर वाले, हंस के जैसे मधुर स्वर वाले क्रौञ्च पक्षी के जैसे दूरदेश व्यापि स्वर वाले, नन्दी के द्वादशविध तूर्य समुदाय के स्वर के जैसे स्वर वाले, नन्दी के अनुनाद के जैसे अनुनाद वाले सिंह के बलिष्ट स्वर के जैसे स्वर वाले "सीहघोसा सुस्सरा, सुस्सरणिग्घोसा, छायायवोज्जोविअंगमंगा, वज्जरिसह नारायसंघयणा समचउरंससंठोणसंठिया छविणिरातका" सिंह के अनुनाद जैसे अनुनाद वाले, एतएव शोभन स्वर वनमा-विरशी असशमा २वी सुह२ छे या "भरहवासमाणुसच्छराओ" १२. तत्रनी से भानुषी३५मां सराय . "अच्छेरगपेच्छणिज्जाओ पासाईयाओ जाव पडिरूवामो" भनु-या मारे थे माश्य १३५. पायी है। वई से प्रेक्षणीय छे. પ્રાસાદી) વગેરે એ ચાર પદોની વ્યાખ્યા જેમ પહેલા કરવામાં આવી છે તેવી જ અહીં ५ समावी. “तेण मणुया ओहस्लरा, हंसस्सरा, कोंचस्सर णंदिस्सरा, णंदीधोसा, सीहस्सरा" बना मनुष्य। अन सिमे सोपवाणा मेघना भी२ २१२वा હંસના જેવા મધુર સ્વરવાળા કૌંચ પક્ષીના જેવા દેશવ્યાપી સ્વરવાળા નન્દીના દ્વાદશવિધતૂર્ય સમુદાયના સ્વર જેવા સ્વરવાળા નંદના અનુવાદના જેવા અનુનાદવાળા સિંહनमस४ ११२ना वा स्वरवास, "सीहधोसा, सुस्सरा, सुस्सरणिग्धोसा, छायायवोज्जो विभंगमंग बजरिसहनारायसंघयणा, समचउरंससंठाणसंठिया छविणिरातंका" सिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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