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मेद बतलाये जायँ और वे ही उक्त तीन सूत्रों में बतलाये गये हैं । तब यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि प्रकरणके अनुसार उक्त तीनों सूत्र अवश्य रहने चाहिए और मूलक ने ही उन्हें रचा होगा । जिन प्रतियोंमें उक्त सूत्र नहीं हैं; उनमें इन्हें भूलसे ही छूटे हुए समझने चाहिए।
३-यदि इस कारणसे ये मूलकण्के नहीं हैं कि इनमें बतलाये हुए भेद जैनमतसम्मत नहीं हैं, तो हमारा प्रश्न है कि उपकुर्वाण, कृतुप्रद आदि ब्रह्मचारियोंके भेद भी तो किसी जैनग्रन्थमें नहीं लिखे हैं, तब उनके सम्बन्धके जितने सूत्र हैं, उन्हें भी मूलकाके नहीं मानने चाहिए । यदि सूत्रों के मूलकत्ताकृत होनेकी यही कसौटी सोनीजी ठहरा देवें, तब तो इस ग्रन्थका आधेसे भी अधिक भाग टीकाकारकृत ठहर जायगा। क्योकि इसमें सैकड़ों ही सूत्र ऐसे हैं जिनका जैनधर्म के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और कोई भी विद्वान् उन्हें जैनसम्मत सिद्ध नहीं कर सकता। . ४-जिसतरह टीकापुस्तकमें अनेक सूत्र अधिक हैं और जिन्हें सोनीजी टीकाकर्ताकी गढन्त समझते हैं, उसी प्रकार मुद्रित और मूलपुस्तकमें भी कुछ सूत्र अधिक हैं ( जो टीकापुस्तकमें नहीं हैं ), तब उन्हें किसकी गढन्त समझनी चाहिए ? विद्यावृद्धसमुदेशके ५९ वें सूत्रके आगे निम्नलिखित पाठ छूटा हुआ है जो मुद्रित और मूलपुस्तकमें मौजूद है:- । ___ "सांख्यं योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी । बौद्धाहतोः श्रुतेः प्रति. पक्षत्वात् ( नान्वीक्षिकीत्वं )। प्रकृतिपुरुषज्ञो हि राजा सत्वमवल. म्बते । रजः फलं चाफलं च परिहरति, तमाभिर्नाभिभूयते।" __ भला इन सूत्रोंको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया ? इसमें कही हुई बातें तो उसके प्रतिकूल नहीं थीं? और मुद्रित तथा मूलपुस्तक दोनों ही यदि जैनोंके लिए विशेष प्रामाणिक मानी जावें तो उनमें यह अधिक पाठ नहीं होना चाहिए था। क्योंकि इसमें वेदविरोधी होनेके कारण जैन और बौद्धदर्शनको आन्वीक्षिकीसे बाहर कर दिया है । और मुद्रितपुस्तकमें तो मूलकाके मंगलाचरण तकका अभाव है। वास्तविक बात यह है कि न इसमें टीकाकारका दोष है और न मुद्रित करानेवालेका । जिसे जैसी प्रति मिली है उसने उसीके अनुसार टीका लिखी है और पाठ छपाया है। एक प्रतिसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी इस तरह प्रतियाँ होते होते लेखकोंके प्रमादसे अकसर पाठ छूट जाते हैं और टिप्पण आदि मूलमें शामिल हो जाते हैं।
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