________________
३०
हम समझते हैं कि इन बातोंसे पाठकों का यह भ्रम दूर हो जायगा कि टीकाकारने कुछ सूत्र स्वयं रचकर मूलमें जोड़ दिये हैं । यह केवल सोनीजी के मस्तक - की उपज है और निस्सार है । खेद है कि हमें उनकी भ्रमपूर्ण टिप्पणियों के कारण भूमिकाका इतना अधिक स्थान रोकना पड़ा ।
एक विचारणीय प्रश्न ।
इस आशासे अधिक बढ़ी हुई भूमिकाको समाप्त करनेके पहले हम अपने पाठकोंका ध्यान इस ओर विशेषरूपसे आकर्षित करना चाहते हैं कि वे इस ग्रन्थका जरा गहराई के साथ अध्ययन करें और देखें कि इसका जैनधर्म के साथ क्या सम्बन्ध है । हमारी समझमें तो इसका जैनधर्मसे बहुत ही कम मेल खाता है | राजनीति यदि धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात् वह किसी विशेष धर्मका पक्ष नहीं करती, तो फिर इसका जिस प्रकार जैनधर्मसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है उसी प्रकार और धर्मोसे भी नहीं रहना चाहिए था । परंतु हम देखते हैं कि इसका वर्णाचार और आश्रमाचारकी व्यवस्थाके लिए वैदिक साहित्यकी ओर बहुत अधिक झुकाव है । इस ग्रन्थके विद्यावृद्ध, आन्वीक्षिकी और त्रयी समुद्देशोंको अच्छी तरह पढ़ने से पाठक हमारे अभिप्रायको अच्छी तरह समझ जावेंगे। जैनधर्मके मर्मज्ञ विद्वानोंको चाहिए कि वे इस प्रश्नका विचारपूर्वक समाधान करें कि एक जैनाचार्यकी कृतिमें आन्वीक्षिकी और त्रयीको इतनी अधिक प्रधानता क्यों दी गई है ।
यशस्तिलक के नीचे लिखे पद्योंको भी इस प्रश्नका उत्तर सोचते समय सामने रख लेना चाहिए:
हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेद्याद्यः परस्यादागमाश्रयः ॥ जातयोऽनादयः सर्वास्तत्क्रियापि तथाविधा । श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षांतः ॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तत्क्रियावानयोगाय जनागमविधिः परम् ॥ यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतुधीस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहार तु स्वतः सिद्धे वृथागमः ॥
तथा च---
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org